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सुधबुध भूला शैयापाल होश में आकर बोला
‘स्वामी, संगीत इतना मोहक था, कि मेरा तो आपा ही खो गया। आज्ञा-पालन कौन करे? दास का अपराध क्षमा करें।'
· · · उस समय तो निद्रावश होने से मैं अपना क्रोध पी कर सो गया। पर सबेरे राजसभा में आते ही मैंने शैयापाल को तलब किया और ललकार उटा :
'ओ नीच, पामर, तेरा इतना माहस कि चक्रवर्ती की आज्ञा का भंग किया तूने ? विखण्ड पृथ्वी को सत्ता और सम्पदा का स्वामी जिस संगीत सुख का उपभोग करता है, उसी का आनन्द तू भी लेगा रे, पांशुकुलिक ? एक दासानुदास की ऐसी स्पर्धा ? एक बर्बर पशुतुल्य क्षुद्र सेवक को क्या अधिकार कि वह मेरे योग्य मनमोहक संगीत को सुन कर मुग्ध हो ? आपा तक बिसार दे, मुझे भुला दे, मेरी आज्ञा तक की अवहेला कर दे ?'
शैयापाल काँपता-थरथराता बोला :
'स्वामी, क्या करूँ. मेरे कानों पर मेरा क्या वश है ? पशु तक भान भूल जायें, ऐसा था वह संगीत । लाचारी को क्षमा करें महाराज · · · मेरे कानों से भारी अपराध हो गया · · !'
'ओह, एक दास के कान मेरे संगीत का आस्वाद करेंगे ? · · · त्रिखण्डाधीश का ऐसा अपमान ? अरे सेवको, हटाओ इस जानवर को मेरे सामने से । लेजा कर इसके दोनों कानों में तप्त सीसे और तांबे का रस उँडेल दो । मेरा वश चले तो, मेरे श्रवण-सुख की स्पर्धा करने वाले हर कान का मैं मूलोच्छेद करवा दूं. . . !'
__.. कहीं नैपथ्य में शैयापाल के कानों में उबलते लावा-सा पिघला हुआ सीसा और तांबा उड़ेला जा रहा है ।' : ' और जाने कितने जन्मान्तरों को पार कर, उसकी वे आर्त क्रन्दन करती चीखें आज मेरे तन के पोर-पोर को बींध रही हैं। · ·ओ बन्धु शैयापाल, कहाँ हो तुम इस घड़ी? आज असह्य है मुझे तुम्हारी उस क्षण की वेदना । मेरी अन्तश्चेतना के अतल भेद कर वह मुझे तिलमिला गयी है।
. . 'आओ मेरे प्रिय शैयापाल, सुनो मेरी वात, किन्नरों के संगीत अब मैं नहीं सुनता । सकल चराचर की नाड़ियों का संगीत अब मेरे अन्तर-श्रवण में प्रवाहित है । जानो बन्धु, प्राणि मात्र के सर्वकाल के सारे पाप-अपराधों का उत्तरदायी मैं हूँ। तमाम इतिहास के आरपार, प्रमत्त सत्ता-सम्पदा-स्वामियों ने जो दीनदलित, अबल-असहायों पर वलात्कार किये हैं, उनका एकाग्र आरोपी मैं हूँ । तुम्हारा और सर्व का चिर जन्मों का अपराधी मैं हूँ । मुझे पहचानो मेरे बान्धव,
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