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बन्दिनी की आँखों के बाँध टूट गये। भिक्षुक तत्काल लौट आया। 'भिक्षादेही . . . !' अनुगंजित हुआ हवाओं में।
भिक्षुक ने सहज नम्रीभूत हो कर, दासियों की दासी चन्दना के आगे अपनी भिक्षा का पाणि-पात्र पसार दिया।
चन्दना ने झक कर अपने अविरल बहते आँसुओं से भिक्षुक के चरण पखार दिये। चरणोदक आँखों और माथे पर चढ़ा लिया।· · ·आँसू की बूंदें टप-टप भिक्षुक की करांजलि में टपकीं। और उसके साथ ही उस कल्याणी ने सूप के एक कोने से, उसमें पड़े वे कुलमाष के दाने अतिथि के पाणि-पात्र में उड़ेल दिये। __• कोई वज्र-साँकल बिजली के झटके से झनझना उठी। हठात् दासी की बेड़ियाँ टूट गयीं। भिक्षुक की अंजुलि में सुगन्धित पयस छलछला उठा। चिर दिन के क्षुधित बालक की तरह भिक्षुक एक ही चूंट में उसका प्राशन कर गया।
'अनाथिनी के नाथ, मेरे पतित-पावन प्रभु !'
कह कर चन्दना भिक्षुक के चरणों में लोट गयी। आँसुओं से उन धूलिधूसरित, अविश्रान्त यात्रिक पैरों को पखारती हुई, उन्हें अपने गीले गालों से पोंछने लगी।
'परम परित्राता, पतित-पावन भगवान महावीर जयवन्त हों।' . . .
अन्तहीन जय-जयकार करती जन-मेदिनी ने देखा : दिव्य वसुधारा बरसाती, नाना वाजित्रों से अन्तरिक्ष को गुंजाती, देव-पंक्तियाँ उस अँधियारी कोठरी के आँगन में उतर रही हैं।
. . विपुल उत्सव-कोलाहल में लोकजन खो गये। भिक्षक जाने कब कौशाम्बी के सीमान्त से पार हो गया।
पीछे उसे एक विधुर विव्हल पुकार सुनायी पड़ी :
'अब मझे छोड़ कर न जाओ, मेरे नाथ । · · मैं आ रही हूँ. . • मैं आ रही हूँ तुम्हारे साथ · · · !'
हवा ने उत्तर दिया : ‘एवमस्तु . . . !'
भिक्षुक ने लौट कर नहीं देखा। वह चलता ही चला गया · · ·चलता ही चला गया।
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