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जी चाहता था कि हर पीड़ित जन की पीड़ा में भाग ले सकें। उसकी वेदना मेरी हो जाती थी, और उसे दूर न कर सकूँ, तो मुझे चैन नहीं आता था।
इस हवेली में आकर थोड़े ही दिनों में समझ गयी थी, कि श्रेष्ठि सारे सुख। सद्भाव और वैभव के होते भी, यों उचाट क्यों रहते थे । सन्तान के अभाव से अधिक, उनके कष्ट का कारण यह था कि वे अपने को नितान्त अकेला पाते थे। मला सेठानी स्वभाव से ही शुष्क, भावहीन और कर्कशा थी। नारी-सुलभ स्नेह, सहानुभूति और ऊष्मा का उनमें सर्वथा अभाव था । कारण-अकारण वे अपने स्वामी पर सदा बिगड़ती रहती थीं। छोटी सीधी-सी बात का भी वे बहुत कर्कश स्वर में वक्र उत्तर ही देती थीं । दम्पति के बीच आत्मीय आदान-प्रदान का कोई सेतुबन्ध था ही नहीं। पारस्परिक प्रीति, सहानुभूति और समझ जैसी कोई चीज़ वहाँ थी ही नहीं। युगल दाम्पत्य वहाँ घटित ही नहीं हो सका था। ___स्वभाव से ही अति मृदु, वत्सल और धार्मिक प्रकृति के श्रेष्ठि चुप रह कर सब कुछ सहते रहते थे । इतने मर्यादावान और विवेकी थे वे, कि अपने अधिकारक्षेत्र से बाहर कहीं अपने अभाव की पूर्ति खोजना उनके वश का ही नहीं था । जब मैं इस घर में आ गयी, तो पाया कि उनके चित्त का सारा चिर उपेक्षित स्नेहसद्भाव मुझ में केन्द्रित हो गया है । वे मुझे बेटी की तरह मानते थे, और चुपचाप एकान्त भाव से मेरी सम्मान-रक्षा, मेरे हित-साधन और आश्वासन की मक चेष्टा वे करते रहते थे। उनके वात्सल्य की इस अन्तःसलिला को अपने भीतर प्रवाहित होते मैंने स्पष्ट अनुभव किया था।
एक बार अवसर पा कर उन्होंने मेरे देश-गाँव, कुल-नाम-गोत्र, मातापिता और कष्ट की कथा को जानने के भाव से सांकेतिक पृच्छा की थी। सायंकाल के अधोमुख कमल की तरह नतशिर, मूक, उदासीन मैं चुप खड़ी रह गयी थी। मेरा सारा हृदय उमड़ कर मेरे ओठों पर जैसे एक चिरकाल की बन्द मंजूषा पर लगी निषेध-मुद्रा सा अंकित हो रहा था। मेरी निरुत्तर कठोर खामोशी से उनके हृदय पर जो आघात हुआ, उसे मैंने मन ही मन बूझ लिया। मेरे मुंह से इतना ही अस्फुट स्वर निकला : ___'बापू, मुझे कोई दुःख नहीं, अभाव नहीं। आप हैं, फिर चिन्ता किस बात की । मैं बहुत भाग्यशाली हूँ।..' ___ इसके उपरान्त मैंने देखा था, कि वे बहुत प्रसन्न, परितुष्ट और सक्रिय रहने लगे थे। उनके चेहरे की उदासी और वीरानी ग़ायब हो गयी थी। एक निरुद्वेग, प्रसन्न शान्ति उनके मुख पर विराजित दीखती थी।
एक दासी अपनी सीमा-मर्यादा में रह कर उनकी जो भी सेवा-संभाल कर सकती थी, वह मुझसे सहज ही होती थी। वस्तुतः गृह-दासी होने के कारण, मैं
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