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जाता है, कि 'अभी और यहाँ' जो यह जीवन और जगत की ऊप्मा भरी, आनन्दभरी, मोहक लीला है, वह क्या निरर्थक ही है ? अपने आप में इसकी कोई सार्थकता और परिपूर्ति नहीं ? तो फिर क्यों यह अनादि-अनन्त काल में चल रही है ? जो है, और मरण, क्षय और विनाश में भी बराबर जारी है, वह मिथ्या, निरर्थक और प्रयोजनहीन कैसे हो सकता है ? केवल सिद्धात्मा सत्य-नित्य हैं, और जगत-जीवन अन्ततः मिथ्या ही है. यह अपने आप में ही एक अन्तविरोधी बात है। अजीब है वह सर्वज्ञ, जिमका पूर्ण ज्ञान केवल मिथ्या-माया के खेल को देखने में ही अनन्तकाल लगा हुआ है ?
. . 'वय के बढ़ते हुए वर्षों के साथ ये प्रश्न ऐसे तीव्र होते गये, कि सत्ता में रहना ही कठिन हो गया । घर में तो ठीक, धरती और आकाश तक में पैर टिक नहीं पाते थे। निराधार, निरुत्तर के शून्य में कैसे खड़ी रहूँ, कैसे ठहरूँ, कैसे उसे जीऊँ और भोगू ? सो जंगलों और पहाड़ों की वीरानियों में भटकने लगी। अभेद्य और वजित में धंसती चली गई हैं। दुर्गमों में चढ़ी और उतरी हूँ। भयावह अरण्यों की कैंटीली. पथरीली दुर्भेद्यता का भेदन किया है। पर्वतों की चोटियों से मानों सीधी छलांग भर कर, नदियों के दुर्दान्त प्रवाहों पर आ पड़ी हूँ। जहाँ मनुष्य कभी न गया होगा, ऐसी आदिम गुफ़ाओं के मरणान्धकारों में भटकती चली गई हैं। हिम्र पशुओं और सरिसृपों की कराल डाढ़ों के भीतर भी यात्रा की है। · · 'जानना होगा, सब कुछ को अणु-अणु में जानना होगा ! जाने बिना. जिया नहीं जा सकता, ठहरा नहीं जा सकता, भोगा नहीं जा सकता। किन्तु जीते जी मृत्यु के भीतर से गुज़र कर भी तो कल नहीं पड़ी, चैन नहीं आया। . . .
मेरी उस अन्तिम विकलता के छोर पर, जाने क्यों, वर्द्धमान, केवल तुम्हीं खड़े दिखायी पड़ते थे। उसी चरम अनाथत्व और शरणहीनता की प्रतिकारहीन वेदना को ले कर, उस दिन आखिर तुम्हारे पास दौड़ आयी थी । नन्द्यावर्त में पहुँच कर तुम्हारे कक्ष के उम एकान्त साम्राज्य को भंग करने को विवश हो गयी थी। अन्तहीन प्रश्नों की जलती शूलियाँ मेरी कुँवारी छाती में कमक रही थीं।
· · पर यह क्या हुआ कि तुम्हारे सामने आते ही. तीखे प्रश्नों का वह असिधार जंगल, सुरम्य बादलों के खेल-सा बिखर गया। दृष्टि मे परे कपूर की डली जाने कहाँ उड़ गयी; सांसों में केवल उसकी शीतल, शामक मुगन्ध भर रह गई। बरमों बाद उस दिन जैसे मेरी माँसे एक अनादिकालीन फाँसी के फन्दे से मुक्त हो गई। क्या उत्तर मिला. पता नहीं। पर देखा, कि सामने बैठा, यह जो लीला-चंचल लड़का अपने हमी-विनोद से मेरी
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