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आँखें उन दिगन्तों पर विछी थीं, जिनका तुम निरन्तर अतिक्रमण कर रहे थे। · · 'उन्हें स्पष्ट दीखा कि, मूर्तिवत् ठगी-सी, घायल पंखिनी-सी मैं उन दूर-दूर जा रहे चरणों में लोटती चली जा रही हैं। · · 'तब उन सबको प्रतीति हो गई, कि अब मेरा स्वैर-विहार खतरनाक़ ही हो मकता है। सो चिर दिन की मुक्त आकाशिनी को पिंजड़े में पूर दिया गया।
· · 'नहीं, तुम्हारी निष्ठर पीठ का पीछा नहीं किया चाहती थी। जाने से पहले तुम एक बार मुझे सन्देशा तो भेज ही सकते थे। मैंने तुम्हें पुकारा या नहीं. सो तो तुम जानो, पर तुम मुझे पुकारो, यह तुम्हारे पौरुष को कैसे गवारा हो सकता था ? नहीं, तुम्हारी खोज में भटकू, यह मुझे अब सह्य नहीं था। जिस खोज की मधुर कसक मेरा एक मात्र जीवन था, उसे तो सामने पड़ते ही, तुमने समयातीत भाव से समाप्त कर दिया था। · · अव तो केवल इतना ही शेप रह गया था, कि अपने को खोजूं । · · मैं हूँ कि नहीं हूँ ? मेरी कोई सत्ता भी है या नहीं ? यदि हूँ, तो कौन हूँ मैं ? इसका उत्तर पाये बिना छिन भर भी सृष्टि में कहीं ठहराव सम्भव न रह गया था।
तुम्हारी विरागी मुद्रा देख आयी थी, पर अपने प्रति जो अनुराग तुम्हारा इतना ज्वलन्त देखा था, उसके बावजूद तुम मेरे प्रति इतने निर्मम भी हो सकोगे, यह तो कल्पना में भी नहीं आ सकता था। मूलाधार को बींध कर जब प्रश्न मेरी शिराओं और अस्थियों के पोलानों में गंजता था कि 'कौन हूँ मैं ?' तो केवल उस दिन की तुम्हारी लीला-चंचल छबि मेरे दृष्टि-पथ'
और सारे आकाश-पथ पर छा जाती थी। तुम्हारे प्रति रोष और क्षोभ से मेरी नस-नस में गाँठें पड़ जाती थीं । अपनी ठोकर के योग्य भी जिसे नहीं समझा, उसकी राह रोक कर, हर परमाणु पर क्यों आ खड़े हुए हो? मेरी छाती पर, मेरे निकलने के एक मात्र द्वार बन कर क्यों जड़ गये हो ?
.. पर कृपा हुई तुम्हारी, अभागिनी चन्दना पर, कि उस पर किंवाड़ बन कर बन्द नहीं हुए, द्वार ही बने कि जहाँ चाहूँ, जा सकती हूँ। और किस मोह-ममता या राजसत्ता का पहरा, उस द्वार की राह को रूंध सकता था, जो कि महावीर स्वयम् था। कृतज्ञ हूँ तुम्हारी, कि भले ही परित्याग कर गये, पर भीतर-बाहर के सारे कारागारों से निकल पड़ने का निर्बाध द्वार मेरे लिये मुक्त कर ही गये। . . .
- - ‘मो उस आधी रात, जब विकलता से तन का तार-तार टूट गया, और बेसुध बेबस पागल-सी चल पड़ी थी, आत्महारा, सर्वहारा, दिशाहारा, तब कोई दीवार, छत, परकोट. प्रहरी कहीं दिखायी नहीं पड़ा। विक्षिप्त नागिन-सी धरती की तहों को तराशती हुई निकलती ही चली गयी।
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