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और अपने होने पर ही जब भरोसा नहीं किया जा सकता, तो किस सहारे पर जिया जाये, और कौन जिये? शीत ऋतु की हिम-पाले की रातों में अंगीठी के पास माँ की गोद में दुबक कर कहानियाँ सुनने वाली वह बालिका कहाँ गयी ? अब माँ की गोद में दुबक कर आश्वस्त और निश्चिन्त नहीं हुआ जा सकता। वह सहारा और विश्वास जाने कब का टूट गया। अब वहाँ दुबक कर निश्चिन्त होना भी चाहूँ, तो हो नहीं सकती।
'सब कुछ को खुली आँखों देखने और समझने लग गयी हूँ। अपने ही इस शरीर में होने वाले सारे परिवर्तनों से परिचित हो गयी हूँ। देख रही हूँ, कि परिवर्तन की इस लीला में सभी विवश हैं, निराधार, अनाथ और कातर हैं। अपनी आँखों के सामने, अपने ही परिवेश में, लोगों को क्षय होते, बढ़ा होते, मर जाते देखा है। हर चीज़ में क्षण-क्षण क्षय का घुन लगा देख रही हूँ । क्षय, विनाश, रोग, बुढ़ापे और मृत्यु के भीतर ही यह सारा खेल चल रहा है। यहाँ का सारा सौन्दर्य, प्रेम और आनन्द क्षय और मृत्य के अधीन है। मृत्य है, तो फिर जीने का क्या अर्थ रह जाता है ? · .. __उत्पत्ति और विनाश के दो छोरों के बीच बह रही इस जग-जीवन की धारा में क्या कुछ भी ऐसा नहीं, जो सत् हो, जो नित हो, जो सत्य हो, जो नित्य हो, जिस पर भरोसा किया जा सके, और जिसमें सुरक्षित और निश्चिन्त जिया जा सके ? क्या है इस सबका आधारभूत सत्य, क्या है इसका सत्व और प्रयोजन ? यदि जगत और जीवन का कोई प्रयोजन
और अर्थ नहीं, तो इसमें कैसे जीऊँ ? किस लिये जीऊँ ? • • 'सभी कुछ तो यहाँ अर्थहीन, प्रयोजन हीन, अनाथ, अरक्षित दिखायी पड़ता है। हम एकदूसरे के भीतर सहारा खोजते हैं, लेकिन मजा यह है कि हम सभी बेसहारा हैं। एक-दूसरे को हम ज्ञान सिखाते हैं, लेकिन स्वयम् ही अज्ञानी हैं। जो स्वयम ही अनाश्वस्त है, उसमें आश्वासन कैसे खोजूं ? जीवन को, जगत को, चीज़ों को पूरी तरह जाने बिना, इन्हें कैसे जीऊँ, कैसे भोगं ? किस आधार पर इन्हें अपनाऊँ ? इस बेसहारगी में जीवन-धारण असह्य हो गया है। इस अनाथत्व और शरणहीनता में साँस तक लेना दूभर लगता है। पूछती हूँ, जगत और जीवन की यह सारी लीला यदि केवल मिथ्या-माया ही है, तो फिर यह है ही क्यों? जो है, वह निरर्थक और निष्प्रयोजन कैसे हो सकता है ? वह असत्य और निराधार कैसे हो सकता है?
परिजनों, गुरुजनों और श्रमणों से आत्मा, कैवल्य, मोक्ष और निर्वाण की बात सुनी है। वे यही तो कहते सुनायी पड़ते हैं : 'इस विनाशीक, भंगुर और मायावी जगत के मोहपाश काट कर, मुक्त हो जाओ, नित्य, बुद्ध, सिद्ध हो जाओ। वह हो भी जाऊँ, तब भी यह प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह
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