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स्वामी ने सहसा ही भीड़ की धारा को तोड़ कर, उसके रुख को दूसरी ओर मोड़ दिया है । सुवर्ण-रत्नों का भव्य रथ मुँह ताकता एक ओर खड़ा रह गया है । • और ठाकुर गंगा के दूरवर्ती पुलिन की ओर द्रुत गति से बढ़े जा रहे हैं। क्या स्वामी गंगा स्नान किया चाहते हैं ? क्या वे अनादिकाल से बहती गंगा के तरंग - रथ पर आरूढ़ होकर यात्रा करेंगे आज ? विस्मय से विश्रब्ध जन- मेदिनी मात्र मुग्ध प्रश्राकुलता के साथ, देवता का अनुसरण कर रही है ।
गंगा पुलिन की लहरों से विचुम्बित एक शिला पर यह कौन कुमार योगी पर्यकासन में ध्यानस्थ है ? कार्तिक स्वामी अविकल्प चरणों से उसी ओर गतिमान हैं । 'सहस्रों भक्तों की एकाग्र दृष्टि, ध्यानलीन योगी के भ्रूमध्य में उद्भासित एक जाज्वल्य चक्र में केन्द्रित हो रही । अन्तर- मुहूर्त मात्र में जाने कब कार्तिक स्वामी उस चक्र की अग्निल धुरी में अन्तर्धान हो गये ।
शताब्दियों से चली आ रही पूजा की धारा को देवता ने स्वयम् एक नयी दिशा में प्रवाहित कर दिया है । जान पड़ता है, ठाकुर ने आज के पूजा मुहूर्त में कोई नया ही रूप - परिग्रह किया है । शत - सहस्र मेदिनी असमंजस में पड़ी है, कि देवता
इस नये स्वरूप का किस नाम से जयजयकार करें ? सो जयध्वनि स्तब्ध हो रही । मात्र मौन पूजार्पण की राशिकृत पुष्प मालाओं से, वह तरंगवाही देवासन ढँक गया है ।
'वैशाली, तेरे सुरम्य प्रांगण से बिदा हुए ग्यारह वर्ष हो गये। इस बीच कई बार आ कर तेरे भीतर से गुज़र गया । तेरे भूतल पर नहीं आया, तेरे भूगर्भ में ही संचरित हुआ हूँ । मेरा सरोकार तेरे कांचन, कामिनी और आकाशगामी भवन - शिखरों से नहीं, तेरी कोख से है । वह कोख, जिससे मेरा यह शरीर अवतीर्ण हुआ है। तेरे उस हृत्कमल को आज सत्ता और सम्पदा के कर्दम की मोटीमोटी तहों ने आच्छादित कर दिया है । इस बीच बार-बार लौट कर उसी दल-दल की पाताली तहों में यात्रा की है। ताकि हो सके तो सदियों से जमे इस कादव को उलीच कर, तेरी कोख के हताहत कोकनद को फिर से उज्ज्वल और ऊर्ध्वमुख कर सकूं । इसी से फिर एक बार आया हूँ, तेरी मर्कलत फर्शों पर नहीं, तेरे भूगर्भ के आदिम अन्धकार के तलातल में ।
अपने अनगार जीवन का यह ग्यारहवाँ चौमासा तेरे ही निपीड़ित अन्तःपुर में बिताना चाहता हूँ । समर-वन नामा उजड़े उद्यान के ध्वस्त और परित्यक्त बलदेव मन्दिर में चार मास क्षपण अंगीकार, कायोत्सर्ग की महासमाधि में उतर गया हूँ । स्वयम् ही हलधारी बलराम का हल बन कर तेरे मनोदेश की पथरा गई माटियों की पर्तों को भेद रहा हूँ ।
• विशाला पुरी का जिनदत्त श्रेष्ठी एकदा सामायिक में अपनी अपार वैभव-सम्पदा के मूल तक जा पहुँचा । उस उद्गम को देखते ही उसकी तहें काँप
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