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उठीं। सम्पत्ति मात्र से उसे असह्य ग्लानि हो गयी । · · 'ओह, अनवरत मानुषहिंसा के बिना सम्पत्ति का संचय सम्भव नहीं। उसी के आधार पर वह टिकी है। · · 'परम श्रावक जिनदत्त की चेतना में प्रबल संवेग का संचार हुआ । उसने अपना समस्त धन-वैभव निमिष मात्र में दीन निर्धनों को लुटा दिया। · · 'अब वह एकाकी निर्जनों, खण्डहरों, स्मशानों में सामायिक लीन भाव से अकारण ही विचरता रहता है । कई-कई दिनों में एकाध बार अपनी गिरस्ती में लौटता है, जिसका चरितार्थ वह एक कम्मशाला में कठोर श्रम करके चलाता है। अपनी इस सर्वहारा स्थिति के कारण वह लोक में जीर्ण श्रेष्ठि के नाम से विख्यात हो हो गया है।
• • 'इस बीच जिनदत्त को कई बार अकेला बलदेव मंदिर के निभत एकान्त में, अपने समीप सामायिक में उपनिविष्ट देखा है। मेरी ध्यानस्थ मुद्रा को निहार उसकी आँखों में उजलते आँसुओं पर निमिष भर दृष्टि ठहरी है। उसके मुख से उच्छवसित होते सुना है : 'अवसर्पिणी के चरम तीर्थकर ? · · 'प्रभु के दुर्लभ दर्शन पा कर यह अकिंचन कृतकृत्य हुआ । कब तक नाथ, कब तक चलेगा तुम्हारी दुद्धर्ष तपस्या का यह अनाहत पराक्रम । मुझ से अब नहीं सहा जाता, नहीं देखा जाता । . . .'
प्रति दिन आ कर जाने कितनी देर वह श्रमण के कर्दमचारी चरणों को अपनी आँखों के जल से धोता रहता है। · · चार मासक्षपण की समाप्ति का दिन आ पहुँचा । कार्तिक पूर्णिमा की सन्ध्या में आकर उसने श्रमण से निवेदन किया : 'भगवन्, कल प्रातः मुझ अकिंचन के द्वार पर पारण को पधारें।'
मेरे पास तो सभी बातों का एक ही उत्तर शेष रह गया है : मौन । और पाया है कि हर प्रसंग पर उठने वाले प्रश्न के उत्तर में यह मौन, जन के मन में यथेष्ट मुखरित हुआ है। जिनदत्त को भी उसका उत्तर मिला ही होगा।
· · 'अगहन की प्रतिपदा के पूर्वान्ह में, ठीक मुहुर्त क्षण आते ही भिक्षुक गोचरी पर निकल पड़ा । उसके चाहे बिना, उसे कोई पहचान सके यह सम्भव नहीं। श्रमण तो वैशाली में कई आते रहते हैं, एक यह भी सही । वैशाली के उपान्त मार्ग पर वह भूमि के कण-कण पर दृष्टिपात करता भिक्षाटन कर रहा है। जिनदत्त श्रेष्ठि ने प्रासुक और एषणीय भोजन का पाक किया है । वह अपने गृह-द्वार में आवाहन कलश उठाये, अपने प्रभु के पंथ में अपलक आँखें बिछाये है । मन ही मन वह सोच रहा है :
'जिनके दर्शन मात्र से चेतना मोक्ष पा जाती है, वे अर्हत जब मेरी अंजुलि का आहारदान ग्रहण करेंगे, वह घड़ी कैसी धन्य होगी । कैसी अनुपम ! मेरे हाथों वे चार मासक्षपण का पारण करेंगे ?' · · ऐसी ही तरह-तरह की कल्पनाओं में
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