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राजा, श्रेष्ठि, लोकजन वसुधारा से बरसे द्रव्य को जोहने-बटोरने में तन्मय हो गये। श्रमण जाने कब चुपचाप वहाँ से जा चुका था। कुछ विरल जिज्ञासु और मुमुक्षु लोकजन दूर से उसका अनुसरण कर रहे थे।
· · ‘समरोद्यान के बलदेव मंदिर में पहुँच कर, अपने आसन पर अवस्थित हो गया हूँ। तभी कुछ आत्मार्थी आकर प्रणत हुए, और पूछा :
__ 'भन्ते श्रमण, इस क्षण इस नगर में कौन आत्मा उज्ज्वल सम्यक् दर्शन से मंडित है?' _ 'जीर्ण श्रेष्ठि जिनदत्त !'
'सो कैसे भन्ते ? उस हतगामी के द्वार पर तो प्रभु का पारण न हो सका। वह तो नवीन श्रेष्ठि के हाथों हआ। उसके आँगन में दिव्य अतिशय
'नवीन श्रेष्ठि के हाथों नहीं, किंचना दासी के हाथों · · · !' 'आश्चर्य प्रभु, नवीन श्रेष्ठि तो कहता है . . .'
'ठीक कहता है वह, उसे दान करने को विवश होना पड़ा, पर किंचना के हाथों · · ·!'
'निमूढ़ है स्वामी की रीत। हम समझे नहीं, भन्ते।'
'श्रमण का भाव-पारण तो जीर्ण श्रेष्ठि के हाथों ही हो चुका था। वह आप्त जन है, सो उसे बाहर से अपनाने का उपचार अनावश्यक ठहरा । मिथ्या दृष्टि नवीन श्रेष्ठि का अहंकार पराकाष्ठा पर था। उमकी भिक्षा ले कर ही, उससे निस्तार सम्भव था। दिव्य अतिशय माया में भूले बालक का मन बहलाव है। सम्यक् दृष्टि जीर्ण श्रेष्ठि उससे ऊपर है।'
'भन्ते श्रमण, जोर्ग श्रेष्ठि को मनस्थिति इस समय कैसी होगी ?'
'आर्य श्रावक जिनदत्त अभी-अभी देह-त्याग कर गये। अच्युत देवलोक में संक्रमण कर वे संसार की एक वृहद् साँकल तोड़ गये हैं। अपने को अवहेलित अनुभव कर, पड़ोसी के घर दिव्य अतिशय देख, यदि वे खिन्न न हुए होते, तो अन्तर-मुहूर्त मात्र में उनकी आत्मा परमोज्जवल केवलज्ञान से आलोकित हो उठती। धन्य है श्रावक श्रेष्ठ जिनदत्त ! . . .'
मौन, अविकल्प, अपने में समाहित, ये सारे प्रश्नोत्तर सुने हैं। साक्षी हूँ, श्रोता हूँ केवल इन सबका। और भीतर अनायास प्रबोध की कई नयी पँखुरियाँ खुल आयीं हैं।
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