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वासी गृहस्थ पूरण, पहचान रहा हूँ तुझे। घोर अज्ञानी तप करके, तूने विश्व पर प्रभुता पाना चाही। तप कभी निष्फल नहीं होता । संकल्पित फल देता ही है। तेरा अहंकृत मनोकाम सिद्ध हुआ। विश्व-पीड़क असुरेन्द्र की सर्वसंहारक सत्ता तुझे प्राप्त हुई। उस सत्ता की सीमा भी देखी तूने। अब देख, इससे परे की अनन्त सत्ता को। आत्म-सत्ता, स्वयम् अपनी सत्ता!'
'उसे तो समक्ष भगवान में मूर्तिमान देख रहा हूँ, हे परमेष्ठिन् ।' 'तद्रूप भव, आत्मन् ! मद्रूप भव, आत्मन् !' . 'प्रबुद्ध हुआ, भगवन् ।'
• • 'पदनख पर एक और अशोक फूल आ कर टपका। नीलेश्वरी ध्यान-ज्योति के आलिंगन से मुक्त हो कर, बहिर्मुख हुआ। ध्यान में अभी देखी अनन्त संसार समुद्र की एक तरंग-लीला का स्मरण हो रहा है। इसमें कौन किसका अपराधी है, कौन निर्णय करे? अपने सिवाय, कौन यहाँ किसी का कर्ता, धरता, हर्ता हो सकता है ? केवल एक ज्ञान, एक क्रिया अन्तिम निर्णायक है, निर्मायक है। आत्मज्ञान, आत्मक्रिया।...
प्रश्न अनिवार्य हो कर सामने आ खड़े होते हैं। उत्तर जहाँ है, वहाँ से अचूक प्रतिध्वनित होता ही है। मैं तो कुछ सोचता नहीं, बोलता नहीं, करता नहीं। केवल चुप रहता हूँ, स्वयम् होता रहता हूँ, और सब देखता रहता हूँ। यह महावीर कौन है ? • • 'नहीं मालूम । ...
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