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मैं चन्दन बाला बोल रही हूँ
'वर्द्धमान, आखिर तुम चले ही गये · ?' : तुम्हारे महाभिनिष्क्रमण की खबर पाकर, इतना ही तो मेरे मुँह से निकला था । उदास हो कर वातायन की मेहराब थामे, उसके खम्भे पर माथा ढाल कर खड़ी रह गयी थी और सूर्यास्त तक भी मुझे होश नहीं आया था । मूर्तिवत् स्तंभित थी, और दिशाओं के पार दूर-दूर जाती तुम्हारी पीठ देखती रह गई थी। जानती थी तुम्हारी नियति । फिर भी इसके लिये मन को तैयार न कर सकी थी।
'कि औचक ही तुम झटका दे कर जा चुके थे। और मेरी नियति ? नन्द्यावर्त महल में, प्रथम बार तुमसे मिलने के बाद उस ओर से ध्यान ही हट गया था । केवल तुम्हारी ओर निगाह लगी रहती थी । अपनी ओर देखने की सुध ही कहाँ रही थी ! जैसे मैं रह ही नहीं गयी थी । फिर किसकी नियति ? कौन सोचे ?
लेकिन जब तुम चले गये, तो अपने में लौट आने को तुम मुझे विवश कर गये । अपनी ओर देखने के सिवाय, और तुमने कुछ भी मेरे लिये सम्भव न रहने दिया । और तब मेरी अपनी नियति सामने आ कर खड़ी हो गई। कितनी प्रश्नाकुल और अँधियारी ! अन्धकार की पर्वत श्रेणियाँ, जो आवाहन दे रही थीं : 'आरोहण करो हम पर !' इतने अचूक, सुन्दर, उजियाले, पारदर्शी तुम ! केवल यही वरदान मेरे लिये पीछे छोड़ गये ?
पहचानते हो वर्द्धमान, मैं चन्दना बोल रही हूँ ? तुम्हारी चन्दन मौसी । मौसी तो दूर, अपनी चन्दन की भी अब तुम्हें कहाँ याद होगी । दिगन्तों पर विहार कर रहे हो । अन्तरिक्षों में विचर रहे हो । देह और पदार्थ से ले कर प्राणि मात्र के मन-मनान्तरों में समान रूप से गतिमान हो। जड़ और जंगम का भेद भूल कर यकसा सब के आरपार यात्रित हो। ऐसे में मुझे अलग से पहचानने की ज़रूरत तुम्हें कहाँ रही ? उससे तुम आगे जा चुके । तुम्हारे दर्शन के अनन्त विराट् में एक लड़की का क्या मूल्य ? सारे ही पुरुषोत्तम हमारी ही गोद से उठ कर भी, अन्ततः हमें बस गये । हमें आधी रात शैया में सोती छोड़ जाने में भी वे कभी नहीं
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