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हिचके। और फिर लौट कर भी नहीं देखा। तिस पर तुम तो तीर्थंकर हो कर जन्मे हो। लोक के आज तक के सारे सूर्यों के अनन्य प्रतिसूर्य । सूर्य को क्या गरज़ कि वह किसी विशेष को पहचाने । वह तो सब पर समान रूप से चमकता है।
तुम्हारे महाप्रस्थान की सूचना, पूर्व सन्ध्या में ही वैशाली. पहुँच गयी थी। सुन कर नसों में बिजलियाँ कड़क उठी थीं। तनी प्रत्यंचा की तरह प्रतीति हुई थी : 'तुम्हारी हर यात्रा के छोर पर मैं खड़ी हूँ। · · ·ओ दिगम्बर, मैं हूँ तुम्हारी दिगम्बरी, तुम्हारा दिगम्बरत्व । तुम्हारी दिग्विजय के दिगन्तों को मैंने अपनी कलाइयों पर चूड़ियों की तरह धारण कर रक्खा है।' . . . अभिमान आ गया था मन में। नहीं, मैं नहीं आऊँगी तुम्हें बिदा देने । मेरी सत्ता के हर पणिमन में जो खेल रहा है, उसकी बिदाई कैसी? सारे लोक-लोकान्तरों को जय कर के एक दिन तुम्हीं को लौट आना होंगा मेरे पास।
· · 'बड़ी भोर ही कई रथ माँ, पिता, भाइयों-भाभियों, अनेक परिजनो को ले कर कुण्डपुर को प्रस्थान कर गये। मुझे साथ ले चलने को सारे महलों और उद्यानों के कोने-अँतरे छान डाले गये। पर मेरा पता कोई न पा सका। इन्द्रों और माहेन्द्रों के सारे स्वर्ग तीर्थंकर के दीक्षा-कल्याणक का उत्सव रचने को, कुण्डपुर के प्रांगण में उतरे थे। पर चन्दना उस में कहीं नहीं थी। अपने अन्तर-कक्ष की वैभव-शैया को भेद कर, नग्न पृथ्वी से आलिंगित थी वह । अपनी छाती की व्यथा में, गमनागमन की सारी माया को उसने व्यर्थ कर दिया था। · · 'मुझ से जा कर मुझी तक पहुंचने की इस महायात्रा के यात्रिक का स्वागत करूँ या उसे बिदा दूं, इसी असमंजस में पड़ी थी। · · 'अन्तर्तम में यह प्रतीति चाहे जितनी ही अटल रही हो, पर देह, प्राण, मन, चेतन, इन्द्रियाँ चूर चूर होती चली गयीं थीं। अपने अस्तित्व की अस्मिता और इयत्ता को पार्थिव में बाँधे रखना मेरे वश का नहीं रह गया था।
• 'मेरे बार-बार बुलाने पर भी तुम कभी वैशाली नहीं आये। आखिर . हार कर मैं ही आयी थी तुम्हारे पास। उस दिन काया भले ही वहाँ से लौटी हो, पर मैं फिर उस कक्ष से लौट कर आ नहीं सकी। प्रथम दृष्टिपात में ही जो तुम्हारा स्वरूप देखा, तो विस्मय से अवाक् रह गई। लगां था कि · · · रंच भी नया, अपरिचित, अन्य कोई नहीं है यह ! स्मृति जागने के दिन से ही मेरे स्वप्न के क्षितिज पर जो अज्ञात अनंग युवा खेल रहा था, वही आँखों आगे साकार हो गया । चक्षुओं का देखना जहाँ समाप्त हो जाता है, वह अवाङ्ग-मनस-गोचर रूप देखा । मेरी हर उमंग और चाह
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