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अवन्ती के महासेनापति, महामात्य और सैनिक स्तंभित, इस सर्वलक्षण सर्वांग सुन्दर नग्न पुरुष को देखते रह गये !
आनन्द से उन्होंने जयनाद किया :
'जय महाकाली, जय जगदम्बे, जय महाकाल, जय महाकाल, जय महाकाल
मान-संभ्रम पूर्वक उस नग्न बलि- पुरुष को एक भव्य-दिव्य रत्नों के रथ में बैठाया गया । पुरुष ने उन्नत वदन, निष्कम्प, मुस्कुराते हुए इस बलि-सम्मान का का वरण कर लिया ।
• ' ब्राह्ममुहूर्त की संजीवनी हवा में बलिपुरुष के रथ को घेरे दौड़ते अश्वारोही, हर्षाकुल जयकारें करते हुए, महाकाली मंदिर के चण्डी-मण्डप की ओर उड़े जा रहे हैं ।
• ' महाकाली मंदिर के तहखाने में ध्यानस्थ हूँ । देख रहा हूँ, मेरी मूर्द्धा पर, अपने गर्भगृह की चट्टनी वेदी के मध्य, विराजमान हैं महिषासुर मर्दिनी महाचण्डिका। उनकी विप्लवी तांडव मुद्रा अनायास कोमल लास्य की भंगिमा में परिणत होती जा रही है । उनकी विकराल लपलपाती जिव्हा उनके मुख में अपसारित हो गई है। उनकी नथड़ी तले, उनके अधर-सम्पुट में, चुम्बन के मकरन्द से भरा ललित लोहित कमल मुस्करा उठा है । उनके सर्व-संहारक तांडवी चरणों में मृदु-मन्द नुपुर-रव रुनझुना रहा है। उनकी सुनग्ना मोहिनी जंघाओं ने फैल कर मानो मुझे समूचा अपने उरुमूल में समाहित कर लिया है । और ध्यान में ऐसी सर्वाश्लेषी समाहिति अनुभव कर रहा हूँ, कि मानो अखिल विश्व ब्रह्माण्ड माँ के स्तन - मण्डल में विसर्जित हो कर मेरे मस्तक का सिरहाना बन गया है ।''
बाहर से सुनाई पड़ रहा है दुंदुभियों का आकाश - विदारक महाघोष । कईकई डमरुओं और मृदंगों का लोमहर्षी अविराम वज्र - निनाद । युगान्त के समुद्रगर्जन को प्रतिध्वनित करने वाले शंखों की समवेत ध्वनियाँ । रण-भेरियों का तुमुल नाद । और अनुभव कर रहा हूँ, मेरे कुंभकलीन श्वास में किसी अपूर्व सृष्टि-संगीत के स्वर-ग्रामों की रचना हो रही है ।
देख रहा हूँ, बलि-पुरुष का विविध प्रकार के गंधजलों और पंचामृत से अभिषेक किया गया है । महार्घ फूलेंलों से उसकी अनंग- मोहन काया के प्रत्येक सुकोमल अवयव को बसाया गया है । फिर उसके सारे ही अंगांगों पर सुकोमल दिव्य अंगरागों का आलेपन किया गया है। महाभाग है यह बलि-पुरुष, जिसकी वधस्थल पर चढ़ने वाली देह का, मृत्यु के तट पर, ऐसा दुलार शृंगार हो रहा है । मुझे उससे ईर्ष्या हो आई !
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