________________
निराले हैं तेरे खेल, प्रो अन्तर्ज्ञानी
दृढभूमि, बिदा लेता हूँ तुम्हारे आँगन से । किसने कह दिया, तुम म्लेच्छ भूमि हो ? तुम तो परम आर्या हो माँ, तुम्हें प्रणाम करता हूँ। आर्यों के देश में मैं अनार्य-पुत्र हूँ, अनार्यों के बीच मैं आर्य-पुत्र हूँ। ठीक ही तो है, तुमने मेरी नियति को अन्तिम रूप से परिभाषित कर दिया । वर्णसंकर । मैं किसी भी देश, जाति और कुल का हो कर नहीं रह सकता । अदेशीय, अजातीय और अकुलीन हूँ, या फिर सर्वदेश, जाति और कुल का हूँ । यही एकमात्र मेरी स्वाभाविक स्थिति है। ___ओ अनार्या कहलाती माँ, तुमने पिछली रात अपनी धृति के गर्भ में से मुझे एक और भी पूर्णतर जन्म दिया है। तुम्हारी मरणाक्रान्त गोद में से मरणजयी होकर उठा हूँ। अमरों का ऐश्वर्य और पराक्रम तुम्हारे पैर के अंगूठे पर ठिठका खड़ा रह गया, क्योंकि तुम्हारे वक्ष पर चढ़कर मैं मृत्यु के आलिंगन में उत्संगित हो सका। तुम-सी माँ और प्रिया और कौन हो सकती है ? · . .
लगता है, आज सूर्य स्वयम् द्विजन्मा होकर उदय हुआ है। बहुत भिन्न , नया और उत्तीर्ण है आज का सूर्योदय । इसके प्रकाश में अखिल वस्तु-जगत का एक नया ही चेहरा देख रहा हूँ। दृढ़ भूमि से निकल कर फिर आर्य भूमि के उपान्त में विहार कर रहा हूँ। बहुत दिनों बाद फिर ऐसी भूख लगी है, जैसी कि मानों पहले कभी न लगी थी। बरसों से देख रहा हूँ, मेरी हर भूख पिछली से आगे की और नवीनतर होती है। वह कोई ऐसा आहार माँगती है, जो पहले कभी न मिला।
गोकुल ग्राम का वह नदी तट बुला रहा है । अमराई तले के कुटीर द्वार पर वह कौन खड़ी है ? गोपी वत्सपालिका । पच्चीस शताब्दियों से वहाँ खड़ी तुम किसका द्वारापेक्षण कर रही हो? कितनी-कितनी बार तुम्हारी देह वृद्धा हुई, मरी, किन्तु तुम तो अकल कुंवारी ही रही । मुहूर्त आ पहुँचा है, और लो, मैं आ गया हूँ। तुम्हारा वह मनचीता कुमार, जो द्वापर में तुमसे बिछुड़ गया था, और ढाई हजार वर्ष हो गये, तुम्हें कहीं नहीं दिखाई पड़ रहा था।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org