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भ्रान्ति-रेखा जाने कहाँ विसर्जित हो गई। · · ·और मैं अपने कायोत्सर्ग में अविकम्प खड़ा हूँ।
- 'हठात् निवेदन से कातर नारी-कण्ठ की विदग्ध वाणी सुनाई पड़ी : _ 'अनुकम्पा के अवतार सुने जाते हो, महावीर, और तुम ऐसे निष्कम्प, ऐसे निर्मम, पर्वत। हमने तुम्हारे कन्धों पर मुखड़े ढाल तुम्हें चूम-चूम लिया। हमने आहें भर-भर कर अपनी गोपन मर्म-व्यथा तुम्हारे कानों में कही। हमने अपने अनावरण उरोजों से तुम्हारे उन्नत सुमेरु जैसे वक्ष का रभस-आलिंगन किया। उस में अपनी समस्त दाहक कामाग्नि को उड़ेल दिया। तुम्हारी कटि
और जंघाओं से लिपट कर हम रोईं, बिसूरी। पर तुम निस्पन्द, निश्चल पाषाण!
'तुम कैसे अनुकम्पा के अवतार ! तुम कैसे वीतराग, महाकारुणिक, त्रिलोक-पति भगवान ? कि तुम्हें इतनी भी दया न आई, कि तुम हम अज्ञानिनियों की यह असह्य काम पीड़ा हर लेते। तुम तो अजित-वीर्य सुने जाते हो, तुम हमें तृप्त कर देते, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाने वाला था! तुम्हारी वीतरागता में कौन-सा बट्टा लग जाता । जान पड़ता है, तुम्हें अपनी वीतरागता में सन्देह है। तुम अभी भी भय से मुक्त नहीं हो सके हो, इसी से तो हमें छूने-सहलाने की हिम्मत तुम न कर सके। भय से पथरा कर पाषाण हो रहे।
_ 'यदि तुम संचमुच वीतराग हो, तो तुम्हारे सिवाय कौन हमारी इस पीर को हर सकता है। तुम चाहो तो लीला मात्र में हमारी हर कामना को तृप्त कर सकते हो। हे परम दयालु, तुम इतनी भी दया हम पर नहीं कर सकते ? पूछती हूँ, फिर तुम कैसे दयालु · . .?'
.. और अभी, यहाँ, इसी क्षण मेरे ओंठ राशिकृत चुम्बनों के माधुर्य में निमज्जित और तल्लीन हो गये हैं। मेरे कन्धों पर जाने कितने कस्तूरी गंध से ऊर्मिल कुन्तल-छाये मुखड़े ढलके हैं। मेरे कण्ठ पर जाने कितने ही मृणालों के ग्रीवालिंगन झूल गये हैं। मेरी भुजाओं में जाने कितने अपरम्पार वक्षोजों की अगाधिनी विपुलता और गहराइयाँ आलिंगित हैं। सहस्रों कटियों से कटिसात् मेरे उरुस्थलों में मांसलता निःशेष हो गई है । मेरे इस स्पर्शसुख में स्पर्श समाप्त हो गया है । अपूर्व है आज की यह निस्पन्दता, निष्कामता । समाहिति का सुख आज पहली बार ऐसा अव्याबाध हुआ है । सबको अपने में समा लेने की आकुलता, सब में एक साथ समा कर आज विश्रब्ध हो गई है। चरम रति ही तो परम समाधि हो गई है। ___.'सामने की हवा में एक देवाकृति तैर रही है। उसमें अन्तिम पराजय का क्षोभ है। पर वह एक बोध से स्तब्ध है। उसके भीतर गूंज रहा है :
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