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· · 'ओ प्रभास द्वीप की सुन्दरी, समझ रहा हूँ, अपने शिथिल हो गये अधो वस्त्रों की ग्रंथि को दृढ़ करने के लीला-व्याज से, तुम अपनी नाभि की गहन रत्न-वापि ही तो मुझे दिखाना चाहती हो । खुल पड़े नीवि-बंध को फिर से कस कर बाँध देने के छल से तुमने अपने अन्तर-वासक को, इभदन्त नृत्य-मुद्रा के साथ कई बार आरोहित-अवरोहित किया है। ग्रंथि में बँध नहीं पा रहे हैं छोर, और तुम्हारी झुंझलाहट की विदग्ध मोहिनी अन्तहीन हो गई है। सोचो तो, आवरण क्या केवल वसन का ही है ? कृष्ण का चीरहरण क्या केवल देह की नग्नता पर अटक सका था? उसने तो अन्तरवासिनी चिदम्बरा के कंचुकि-बन्धों और नीवि-ग्रंथियों को सदा के लिये तोड़ दिया था। तब जो अनावरण हुआ था, वह निरे मांसल स्तन और योनियाँ नहीं थीं :वे योगिनियाँ थीं । वे अन्तराग्नि से जाज्वल्मान आत्मा की नग्न सुन्दरियाँ थीं।
देख रहा हूँ, तुम्हारे जन्म-जन्मान्तरों के विरहाकुल प्राणों की इस ग्रंथिल पीड़ा को। · · 'नहीं, तुम निरी देह नहीं हो। निपट देहिनी नहीं हो। विदेहिनी है तुम्हारी वासना। फिर क्यों देह के इन चरम उभारों पर आ कर अटक गई हो? क्यों है यह शंका, यह भय, यह हिचक ? · · 'इस लिये कि तुम अपने आप को केवल देह समझ रही हो। तोड़ दो मिथ्या-दर्शन की इस अन्तिम मोह-ग्रंथि को। उसके बाद जो आलिंगन है, उसमें तू और मैं नहीं है। केवल तू है या केवल मैं हूँ । स्पर्श का वह सुख, देह के तट पर हो कर भी, स्पर्शातीत है। वह बाहुबंधन बाँधता नहीं, अन्तिम रूप से मुक्त कर देता है। ..
• 'समझ रहा हूँ, तुम्हारी इन प्रगाढ़ आलिंगन की चेष्टाओं को। अपना ही तो परिरम्भण कर रही हो । अपने ही से डरोगी? तो जल-जल कर मरोगी ही। आवरण की ओंट, अपनी रूपश्री को कभी छुपा कर और कभी दिखा कर, तुम अपने को देना चाहती हो। फिर भी अपने तन के एक-एक सौन्दर्याण को कस कर पकड़े रहना चाहती हो। ऐसे परिग्रह के परकोटों में स्खलन ही सम्भव है, पूर्णालिंगन और परम मिलन कैसे सम्भव है । इन सारे आवरणों, कंचुकियों, नीवि-बन्धों, केश-ग्रंथियों, अवयवों के उभारों को भेद कर, देह के पार क्या तुम अपने को मुझे नहीं दे सकतीं, मुझे ले नहीं सकती ..?
• और सहसा ही एक उल्का अवकाश में आरपार लहरा गई। पृथ्वी के गर्भ में, कोई गहनतम ग्रंथिभेद का आघात हुआ। एक ऐसा भूकम्प, जिसमें वसुधा ने फट कर, अपने को अपने ही में समा लिया। सारे आकाश की नीलिमा द्रवित हो कर, तमाम दिगन्तिनी दूरियाँ पिघल चलीं। क्षितिज की
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