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की तरह अपनी सूंड से मुझ पर आक्रमण किया। उसमें मेरे शरीर को कस कर लपेट लिया । और फिर अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ उसने मुझे आकाश में इतनी ऊँचाई पर उछाल दिया कि अपने भार का भान ही चला गया। तार-तार विच्छिन्न हो कर जब मेरा शरीर फिर नीचे को लौटने लगा, तो उस महाबली गजेन्द्र ने फिर संड ऊपर फेंक कर मुझे झेल लिया। फिर वह, मेरी ममता से विकल हो आक्रन्द करती वसुधा की छाती को जैसे चट्टान समझ कर उस पर मुझे बारम्बार पछाड़ने लगा। उन निरन्तर आघातों से. मेरी वज्रवृषभ-नाराच संहनन की धारक हड्डियों तक से तड़क कर अग्नि की चिनगारियाँ फूटने लगीं । महानुभाव गजेन्द्र अपने ही आघातों से उत्पन्न इस अग्नि की लपटों को सहन न कर पाये, और विपल मात्र में जाने कहाँ अन्तर्धान हो गये ।
· 'नहीं, अब किसी झूठी राहत की माया मुझे नहीं छल सकती। सुस्थिर, अविकल सन्नद्ध हूँ और निवेदित हूँ, अब जो भी सन्मुख आये। जान पड़ रहा है, मृत्यु तो बहुत पीछे छूट गई है। मैंने तो उसकी गोद में भी बहुत प्यार से उमड़ कर सर ढाल दिया था। पर यह क्या हुआ कि अपने आँचल से मुझे झटक कर वह भी भाग खड़ी हुई। मृत्यु तक अपनी ममता मुझे देने से कतरा गई। तब नहीं जानता, ये सब मुझसे क्या चाहते हैं ?
अपने समत्व और संवर में और अधिक निश्चल हो गया हूँ । झेलने और न झेलने से परे, सहने और न सहने से परे, केवल बस हूँ । मानो हो कर भी नहीं हूँ : नहीं हो कर भी हूँ। · · 'लेकिन नहीं, मेरी इस स्थिति को भी यहाँ स्वीकृति नहीं। . . . क्योंकि एक दुर्मत्त युवा हथिनी जाने कहाँ से अचानक आ कर, अपने मद झरते कपोलों को मेरी जंघाओं पर पछाड़ रही है । फिर भी हिल नहीं सका हूँ, तो हाँफतीहॉफ़ती क्षोभ से फुफकारने लगी है। उसके जी में कचौट है कि कैसे पाषाण से पाला पड़ गया है। सो अपने कुम्भ के आघातों से मेरी छाती का भंजन करती हुई, अपने दाँतों से मेरे फेंफड़ों और पसलियों को भेद रही है। रक्त-मांस तो मन चाहा उसने पाया, पर उसे किसी तरह भी कल नहीं आ रही । प्यार तो अनायास मेरे घायल अंगों तक से सदा बहता ही रहता है। उसके सिवाय तो मुझ अकिंचन का कोई धन नहीं । वह मेरी अन्तिम विवशता है । पर उसे भी ये लेना नहीं चाहते। जान पड़ता है, वह कम पड़ रहा है इनके लिये । लगता है, अभी मेरा अस्तित्व सीमाओं से उबर नहीं पाया है, इसी कारण मेरी प्रीति अनन्त नहीं हो पा रही। हो सकी होती, तो उसके लिये चिरकाल से तरसते प्राणि, उसमें अवगाहन कर निश्चय ही शान्त हो जाते ।
क्या इस सीमित देह के रहते, उस अनन्त को जीना सम्भव नहीं ? लेकिन अनन्त जो है, उसके लिये कुछ भी असम्भव कैसे हो सकता है ? असं
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