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लगे हैं ।
'मेरे प्राण अनन्त हो जाने को व्याकुल हैं। ताकि हर घात-प्रतिघात के बीच अपने को बहा कर, हो सके तो विश्व - प्राण की इस धारा को अविच्छिन्न देखने, पाने, जीने को मेरा सारा अस्तित्व छटपटा रहा है ।
'महावीर, असम्भव को सम्भव किया चाहता है ? किसी ज्ञानी और तत्वज्ञ ने आज तक ऐसी किसी सम्भावना का पता नहीं दिया । हो सकता है, मैं भ्रांति में हूँ । लेकिन भीतर से जो अपने विलक्षण स्वभाव की अपूर्व पुकार चैन नहीं लेने दे रही, तो मेरा क्या वश है ? 'जीवो जीवस्य जीवनम्' मुझे सत्य नहीं लगता, तो क्या कर सकता हूँ ? उसे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ ?
इस स्थल से, 'देख रहा
नहीं, नहीं त्याग सकूँगा यह ध्यानासन, नहीं टल सकूंगा जब तक अपनी इस अभीप्सा की पूर्ति का कोई इंगित न पा जाऊँ । हूँ, धरती की धृति अब मेरे पैरों को धारण करने से इन्कार कर रही है । ठीक है, माँ वसुन्धरा, समेट लो अपने को छोड़ दो अपने इस बेटे को अधर में । ओ पृथा, मेरी सत्ता तुझ पर समाप्त नहीं । तुझ पर निर्भर नहीं । अच्छा ही है, सारे बाहरी आयतन - आधार चुक जायें, ताकि अपने उस सर्वथा स्वतंत्र आधार में सदाको अवस्थित हो सकूँ, जिसका अन्त नहीं, और जो कभी मुझे धोखा नहीं दे सकता । जो मेरा अपरिछिन्न, अभिन्न स्वरूप है ।
धरती से अपने पैरों को उठा कर शून्य में फेंकने को मैंने छलांग भरी । लेकिन अपनी सारी असह्यता के बावजूद पृथ्वी ने अपने वक्ष से मेरे पैरों को न उखड़ने दिया । और भी कस कर अपनी भुजाओं में जकड़ लिया, और वह मुझसे लिपट लिपट कर आक्रन्द करने लगी । 'अच्छा माँ न छोड़ो मुझे, धारण करो मुझे । मैं तो तुम्हें छोड़ना ही कब चाहता हूँ । लेकिन तुम्हारी धृति को चुकते देख कर, विवश हुआ महावीर, कि वह तुम्हें और पीड़ा न पहुँचाये । हो सके तो अपने खड़े रहने को कोई अपनी स्वाधीन धरती खोज निकाले । तुम चाहोगी माँ. तो चिरकाल मैं तुम्हारा रहूँगा । तुम्हारी गोद में जीवन की नव्य- नूतन लीला कीड़ा करता चला आऊँगा ।
और अपने चरणों से लिपटी वसुन्धरा के दुग्धाविल वक्षोजों में मैं गहरी समाधि में निमग्न होता चला गया । ' कि सहसा ही अपने दन्त - मूसलों से दिग्गजों को ललकारता और उखाड़ता एक महा भयंकर गजेन्द्र सामने से झपटता दिखाई पड़ा । अपने पदाघातों से वह मानों पृथ्वी को दबा कर रसातल पहुँचाने लगा और अपनी सूंड़ को उछाल कर वह आकाश को तोड़ता हुआ, ग्रह-नक्षत्र-मंडलों को छिन्न-भिन्न करता दीखा । उसने प्रलय के दुर्वार समुद्र
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