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इसके चैतन्य को कौन मूच्छित कर सकता है, इसकी आत्मा को कौन जीत सकता है । विश्व- रमणी के सिवाय कौन इसके ऊर्ध्वरेतस् आत्मतेज को स्खलित कर सकता है ! यह, जो निरन्तर सहस्रार के सूर्यचक्र में खेल रहा है ।
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"रत्नों से झलहलन्त एक विमान आकर सामने उतरा है । उसमें से उतर कर एक तुंग काय ललितांग देव सम्मुख प्रस्तुत हुआ । मणिप्रभ मुकुट से मंडित अपना माथा भूमि पर डाल कर उसने प्रणाम किया और बोला :
' दर्शन पा कर कृतकृत्य हुआ, महर्षि वर्द्धमान । ऐसा उग्र तप, तेज, सत्व, ऐसा सम्यक्त्व, ऐसी सहिष्णुता, ऐसी तितिक्षा, ऐसी मुमुक्षा अन्यत्र नहीं देखी । अस्तित्व की भी अवहेलना करके सिद्धत्व -लाभ के लिये ऐसा अनाहत पराक्रम आज तक किसी पुरुष-पुंगव ने नहीं किया। मैं तुम पर प्रीत हुआ, देवषि । इसी लोकालोक की समस्त ऋद्धि-सिद्धि तुम्हें समर्पित करने आया हूँ। जो चाहो माँग लो, दूँगा । जहाँ इच्छा करने मात्र से सारे मनोकाम तुष्ट होते हैं, चाहो तो उन स्वर्गों में तुम्हें इसी देह से ले जाऊँ । तो अनादि भव से संरूढ़ हुए सर्व कर्म से तुम्हें विपल मात्र में मुक्त करके, एकान्त परमानन्द स्वरूप मोक्ष में इसी क्षण तुम्हें उत्क्रान्त कर दूं । ताकि असंख्य विदेह सिद्धों के बीच तुम सदेह मुक्ति-लक्ष्मी के साथ रमण करो । चाहो तो, ज्ञात और अज्ञात पृथिवी के तमाम मंडलाधीश राजेश्वर अपने मुकुट झुका कर जिसके शासन को शिरोधार्य करें, ऐसा त्रिलोक चक्रवर्ती साम्राज्य तुम्हें अर्पित करूँ। जो चाहो माँग लो, राजर्षि, यह मुहूर्त दुर्लभ और अनिवार्य है ।
सुन कर मुस्कुरा आया हूँ, और चुप हूँ । चुप, अनुत्तर, निश्चल हूँ । किन्तु देवता को जाने किस अन्यत्रता से उत्तर सुनाई पड़ा :
'वह सब पा कर पीछे छोड़ आया हूँ, आयुष्यमान ललितांग देव !' 'ओह, कांचन और साम्राज्य से भी परे जाकर अजेय हो चुका है यह देवार्य ?' "हार कर झल्लाया-सा लौट पड़ा है वह देवता अपने विमान में । उसकी वह इच्छा पूरी हो, जिसे वह स्वयम् नहीं जानता है ।
'किन्तु कौन है, जो कामिनी के बाहुपाश से बच निकले ? सृष्टि की उस जनेता को जीत कर भी, अन्यत्र गति कहाँ है ? सृष्टि के बाहर तो सिद्धालय भी अस्तित्व में नहीं रह सकता । 'आओ मादिनी, तुम्हारा विदेह मदन पहली बार देह धर कर तुमसे मिलने आया है ।
'देख रहा हूँ, छहों ऋतुएँ गलबाँही डाल कर सहेलियों की तरह सामने आयी हैं । उन सब ने मिल कर एक साथ अपने विविध सौन्दर्यो का
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