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रही ।
'देखो वह पागल स्त्री, वह धाड़े मार-मार कर उन पेड़ों से सर पछाड़ती तुम्हें गुहार रही है !'
और सामने माँ की अति करुण क्षीण मूर्ति आक्रन्द करती छाती पीटती दिखाई पड़ी । असूर्यं पश्या त्रिशला की काया पर लाज ढाँकने तक को वसन शेष नहीं है ?
सब सुना, देखा । चुप ही रह सका । अनाहत, अविकम्पमान मात्र एक लौ । उसके उजाले में सब स्पष्ट और यथास्थान है । उसमें कोई मीनमेख सम्भव नहीं। मैं रंच भी न हिला । मैं कुछ न बोला । बोलने को था ही क्या ?
पर मस्तक-पीठिका में से उठती एक आवाज़ ने उत्तर दिया : 'कहीं कुछ नहीं है, सिद्धार्थ राज, किस माया के चक्र में फँस गये तुम ? देखो अपने को । अपने नन्द्यावर्त के शयन कक्ष में सुगन्धित शैया पर बहुत राजन् !
सुख से लेटे हो,
'अम्बपाली इस क्षण तक तो लास्य नृत्य ही कर रही है । पर कब महाकाल का डमरू बजने पर, महाकाली ताण्डव नृत्य कर उठेगी, कहा नहीं जा सकता । और विप्लवी रुद्राणी का वह ताण्डव धरती पर नहीं, महावीर की छाती पर होगा । महावीर के वक्ष देश पर ही आम्रपाली अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ नाच सकेगी। वह, जिसके दायें हाथ में अमृत- कुंभ होगा, और बाँये हाथ में नागिन का विष प्याला । 'लेकिन उसमें अभी बहुत देर है, राजन् । महावीर की वैशाली, पृथ्वी पर चिरकाल अजेय है, सिद्धार्थराज ! कांचनकामिनी वैशाली का विनाश कभी भी सम्भव है । पर वह और किसी पार्थिव सत्ता के हाथों सम्भव नहीं । वैशाली का विक्रान्त राजपुत्र महावीर ही वह कर सकता है । उसकी बाँयी भौंह पर वैशाली का विनाश ठहरा है : उसकी दाँयीं भौंह पर वैशाली का अपूर्व निर्माण । पर इस क्षण तो अपनी भृकुटी की गन्धकुटी में वह निश्चल बैठा है । निर्णायक मुहूर्त की प्रतीक्षा करो, सिद्धार्थ'डरो नहीं, अपनी सुरक्षित सुख- शैया में अपने को महसूस करो । और चन्दनबाला ? जानता हूँ, वह स्वयम् अपनी नियति होने को जन्मी है तो भेदना और जीतना ही होगा उसे ।
राज !
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कहाँ है ? 'कोई उपाय नहीं । चन्दन । तो राह के चक्रव्यूहों को 'मैं हूँ, चन्दन, मैं हूँ, ध्रुव मैं ।'
"मेरे सामने खड़ी पर्वताकार तमसमूर्ति काठमारी-सी खड़ी रह गई है । सोचा उसने : 'नहीं मोह-माया के ममता-पाश से निष्क्रान्त है इसका प्राण, मन, आत्मा । नहीं, लोकालोक की कोई चोट, इसके तन और मन की लौ को नहीं तोड़ सकती । कराल से नहीं, कोमल और मधुर से ही यह भुवन मोहन जीता जा सकता है । स्वयम् कामदेव है यह । रति के सिवाय
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