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रुक नहीं सकीं, और वे स्वयम् भी चिड़िया बन कर उन पंछियों की टोह में जाने कहाँ खो गईं । बड़ी कठिनाई में पड़ गया व्याध ! यह उसकी आँखें हैं, कि आकाश है, कि चिड़ियाएँ हैं ? अपने सिवाय और कुछ भी तो दिखाई नहीं पड़ रहा है उसे।
'हठात् व्याध को लगा, अरे, यह कैसा खून बह आया है, इस वृक्ष-ठूठ की छालों में से? इतना कि मेरा अपना ही पूरा शरीर इससे नहा उठा है। मैं व्याध स्वयम् ही आखेट हो गया ? ओह · · यह तो ठूठ नहीं, कोई साधु है . . ! नाथ · · ‘नाथ · · 'नाथ, क्षमा करें भन्ते, अज्ञानी से भूल हो गई । . . .
· · ·और देख रहा हूँ, अपने चारों ओर परिक्रमा करते एक जाज्वल्यमान काल-चक्र को । और दसों दिशाओं से उठी आ रही काल-झंझाएँ बड़े प्रचण्ड वेग से उसे चक्रायित कर रही हैं। एक माटी के पिण्ड की तरह मुझे उसके ऊपर रख कर, कोई अदृश्यमान काला भुज-दण्ड मुझे मनचाहा स्वछन्द गति की पराकाष्ठा तक घुमा रहा है, उठा-उठा कर मुझे मेरु शिखरों पर पटक रहा है। पर यह क्या है। कि मैं तो अपने ध्यानासन पर ज्यों का त्यों निश्चल उपस्थित हूँ, और अपनी उस मृत्तिका-पिण्ड काया को, काल-चक्र में पटखनियाँ खाते, उठते-गिरते देख रहा हूँ। और इस प्रक्रिया में जाने कब उसे, भीषण विस्फोट के धड़ाके के साथ फट कर, उन काल झंझाओं में तार-तार बिखर जाते देखा । पंचत्व को प्राप्त हो गया वर्द्धमान ? अपनी मृत्य को, अपने विनाश को मैंने प्रत्यक्ष अपनी आँखों आगे देखा । लेकिन यह जो देख रहा है, यह फिर कौन है ? · · कौन है यह, जो पीछे शेष रह गया है ?
- - 'ओह, बड़ा धूर्त है यह अवधूत । इसके शरीरों का अन्त नहीं, इसके रूपों और शक्तियों का अन्त नहीं। लेकिन इस समय यह अपनी मौलिक सत्ता में नग्न, निष्क्रिय और एकाकी खड़ा है। अन्तिम प्रहार का ठीक मुहूर्त आ पहुँचा है। इस समय यह अपनी चरम देह में, नितान्त अरक्षित, अप्रतिरुद्ध खड़ा है ।
'सावधान वातरशना, पाखंडी, काल के इस अन्तिम वात्याचक्र से बचकर कहाँ जायेगा ?' · · ·और दो विकराल वन्हिमान बल्लमों जैसे प्रकाण्ड भुजादण्डों ने उस काल चक्र को अन्तरिक्ष में ऊँचा से ऊँचा उठा कर, मेरे मस्तक पर प्रहार किया । कुलाचलों को भी चूर-चूर कर देने में समर्थ उस चक्र के आघात से त्रिवली पर्यन्त मेरा शरीर पृथ्वी में मग्न हो गया। · · 'प्रकृति और पुरुष के नित्य अव्याबाध महामथन में लीन होने की-सी अनुभूति हुई। · · 'एक सर्वांगीण समावेश का महासुख-कमल मेरे हृदय-देश के श्रीवत्स चिह्न पर खुल आया। वर्द्धमान कृतज्ञता के आँसुओं में विगलित हो कर, अपनी अन्तरवर्तिनी महाशक्ति के उस रूप-विग्रह के चरणों में भूसात् हो रहा । प्रशममूर्ति महावीर,
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