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राह चल पड़े। गोशाला अभी भी पुटरिया बना ही पड़ा है, बन्धन खुलने का उसे भान नहीं।
'स्वामी, क्या अपराध है मेरा, जो इन दुष्टों ने मुझे ऐसा दारुण दण्ड दिया है ? अरे मैं तो जो यथार्थ देखता हूँ, वही कहता हूँ । कुरूप को कुरूप कहना भी क्या गुनाह है, भन्ते ? ऐसा वीभत्स रूप, कि अभी तक मुझे मतली हो रही
'क्या आकार को ही देखेगा, आत्मा को नहीं देखेगा रे ?'
'असुन्दर आकार की आत्मा कैसे सुन्दर हो सकती है, प्रभु ? सुरूप और कुरूप जुड़ ही कैसे सकते हैं ?'
स्वरूप देख वत्स, जो सदा सुन्दर ही होता है। स्वरूप देखने की दृष्टि नहीं खुली है, इसी से तो विरूप देख रहा है ?' ____ 'ऐसा कोई अंजन नहीं है, भगवन्, आपके पास, जो आप मेरी आँखों में आँज दें, तो सर्वत्र सुन्दर ही दिखाई पड़े, असुन्दर देखने की पीड़ा से ही सदा को मुक्ति पा जाऊँ ?'
'वह अंजन तेरे ही पास है, आयुष्यमान्, तेरी आत्मा की शीशी में ।'
'आत्मा तो अरूपी है, भन्ते, उस में सुन्दर रूप दिखाने वाला अंजन कहाँ से मिलेगा ?' __'सारे रूप उसी अरूप में से आते हैं। उस अरूप का स्वरूप प्रकट हो जाये, तो सभी कुछ सुन्दर हो जाये । द्रष्टा भी, दृश्य भी।'
‘ऐसा रसायन, भन्ते, आपके सिवाय और कहाँ पाऊँगा? बूंद दो बूंद अपने इस दासानुदास को भी पिला दें, तो देह और देही की झंझट ही खत्म हो जाये । जैसा भीतर, वैसा बाहर । 'अरे, पा गया · · 'पा गया · · 'पा गया, भगवन् ! यही गुर तो मैं खोज रहा हूँ। भीतर-बाहर का यह भेद जगत में देख कर ही तो मेरी आत्मा पीड़ित होती है, और आये दिन रोज मुझे. मार पड़ती है . . !' 'मद्रूप हो जा, वत्स, तो तद्रूप हो ही जायेगा · · !'
और मैं आगे बढ़ गया। गोशाला भी सीधा सड़क हो, पीछे-पीछे चलने लगा।
गोभूमि सन्निवेश के चरागाह में आ कर खड़ा हो गया हूँ। गोचारण करते ग्वालों को देख, गोचरी का स्वरूप साक्षात् कर रहा हूँ।
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