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सहसा ही गोशालक का तीव्र आवेश भरा स्वर सुनाई पड़ा है :
'अरे ओ वीभत्स मति वालो, अरे ओ विकट कर्कटो, अरे ओ म्लेच्छो, अपने ही गोचर में शूरवीर बन विचरते गोपालो, कहो तो यह मार्ग कहाँ जाता है ?' __ गोपाल बोले :
'अरे ओ पंथी, तू बिना कारण हमें क्यों गाली देता है ? हमने तो तेरा कुछ बिगाड़ा नहीं। जा साले, तेरा नाश हो जाये !'
गोशाला और भी उत्कट हो बोला : 'अरे ओ दासी-पुत्रो, जो तुम मेरा यह आक्रोश सहन नहीं करोगे, तो मैं और भी आक्रोश करूँगा । मैंने तो तुमको कोई गाली दी नहीं। सच पूछो तो मैं मब को गाली दे रहा हूँ। मैं इस सारी दुनिया से नाराज़ हूँ। यहाँ का सब मुझे कुरूप और कदर्थी लगता है।'
'लगता होगा तुझे। उसके लिये हमें क्यों गालियाँ दे रहा है । हमने तेरा क्या विगाड़ा है, पण्ड ?'
'अच्छा यह बताओ, क्या तुम म्लेच्छ नहीं हो, वीभत्स नहीं हो, दासी-पुत्र नहीं हो ? तुम्हारी अहीरनी माँएँ क्या इन धर्त ग्रामपतियों की भोग-दासियाँ नहीं हैं ? हिम्मत हो तो, मच-सच बतलाना · · ·!' ___ग्वालों ने क्रुद्ध हो कर, अपने चौपायों को हाँक दी, और उन्हें गोशाले पर दौड़ा दिया। निरीह गो-बैलों के सींगों और खुरों की मार से कुचल कर वह अधमरा हो रहा ।
- - मैं अपनी राह पर दूर निकल गया हूँ। हाँफता-हांफता गोशाल पीछे दौड़ा आया ।
'आप के मौन का रहस्य समझ रहा हूँ, भन्ते । चुप रह कर आप मेरे चैतन्य की शीशी खोल रहे हैं। आज तो जान पड़ता है, सींगों और खुरों की मार मे वह फट पड़ी है। एक साथ ही उसका सारा अंजन मेरी आँखों में लग गया है। मोरज ने भीतर तक घुस कर मेरी आँखों के मारे जाले काट दिय हैं । पर ठीक पता नहीं चल रहा है, कि इस दुनिया की कुरूपता नंगी हुई है, या मेरी ही कुरूपता उघड़ कर सामने आ गई है । आपके साथ घिसते-घिसते कभी तो शालिग्राम हो ही जाऊँगा, प्रभु !'
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, और चुपचाप अपने यात्रा-पथ पर आरूढ हूँ।
. . राजगृही की सुरम्य शादल हरियालियों में जो चौमामा बीता है, उसकी कोमलता तले, भीतर की तहों में छुपे कर्म-कंटक-कान्तार और भी प्रबल हो कर उभरे हैं। सो फिर म्लेच्छ खंडों की यात्रा की है। वहाँ के छेदन
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