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'क्षमा करें भगवन् ! अनाथों के एकमेव नाथ ! मेरी चिर काल की सन्तप्त आत्मा के पहले आत्मीय ! अचूक बान्धव ! : - 'अक्षम्य अपराध हो गया मुझ से। तीर मेरे हाथ से निकल चुका है। · · 'हाय मैं तुम्हारा हत्यारा हो गया, महावीर ! हो सके तो उस तीर को लौटाओ, भगवन् ।'
'तीर ठीक छूटा है, और वह अपना लक्ष्यवेध करके ही लौटेगा, वत्स । हत्यारा तुम्हारे ही सन्मुख खड़ा है, देवानुप्रिय , फिर चिन्ता किस बात की ?'
'खम्मा, खम्मा, देवार्य ! हत्यारा तो मैं हूँ, स्वामी ।'
'इस लिए, कि इससे पूर्व कभी मैं तेरा हत्यारा था। : । परस्पर देवोभव, आत्मन् । केवल यही मंत्र हत्या की इस चिर पुरातन शृंखला को तोड़ सकता
'एवमस्तु, महाश्रमण । अर्हत् शाश्वतों में लोकालोक पर शासन करें !'
और वैशायन भूमिष्ठ प्रणिपात कर. निःसंग भाव से अपने एकाकी यात्रापंथ पर निकल पड़ा । . . .
'भन्ते, बड़ा विकट है यह तापस । इसकी नाभि क्या है, मानों अग्निबाणों का तूणीर है। इस चमत्कार का रहस्य बतायें, प्रभु ।'
'तेजो लेश्या · · ·!'
'यह क्या कोई सिद्धि है, भगवन् ? इस लब्धि को प्राप्त करने का उपाय बतायें, भगवन् ।'
'सम्पूर्ण आत्मदमन । दारुण तपस्या द्वारा देह, प्राण, इन्द्रिय, मन का आत्मगोपन । तप की भस्म से ढंकी, चिरकाल के संचित कषायों की एकाग्र अग्नि । जो अन्तिम आघात पा कर, अन्तिम प्रत्याघात करती है।'
'इस सिद्धि की कोई विधि, भन्ते ?'
जिस अस्त्र के आघात पर, एक दिन मेरी अर्हत्ता को कसौटी पर सिद्ध होना है, उसके सन्धान की विधि को यथा समय प्रहारक के हाथों सौंपे बिना निस्तार कहाँ ? सो श्रमण के मुख से सहज ही वह विधि उच्चरित हो गई। गोशालक विद्या-तंत्र पा कर हर्ष-विभोर हो रहा ।
'और आपके हृदय से प्रवाहित ये जलधाराएँ, भन्ते ? जान पड़ता है, आपके हृदय में न जाने कितने झरने छुपे पड़े हैं। अपने चिर किंकर को इसका भी रहस्य समझायें, भन्ते ।'
'शीत लेश्या . . .!'
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