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मारजयी मदन-मोहन
फिर म्लेच्छों की दृढ़-भूमि ने पुकारा है । सो आर्य भूमि की सीमा का अतिक्रमण कर म्लेच्छ देश में विचर रहा हूँ। रोते हुए कुत्तों के एक पूरे क्षितिज ने यहाँ मेरा स्वागत किया है। आदि पुरातन वट वृक्षों के जटाजाल से छाये एक भूतिहा वन की कोटरों में से एक साथ कई उलूकों की हुलु-ध्वनि रह-रह कर सुनाई पड़ती है। किसी चरम मंगल का सन्देश इसमें बुझ रहा हूँ। ____ म्लेच्छों के पेढ़ाल ग्राम के निकट, पोलास नामा चैत्य-उपवन में प्रवेश कर, झिल्लियों की झनकार-ध्वनि के बीच एक भीमकाय शिला पर आरूढ़ हो गया। झिल्ली-रव, उलूक-ध्वनि और श्वान-रुदन के समवेत संगीत की धारा में ध्यानस्थ चेतना ऊर्ध्व से ऊर्ध्वतर अन्तरिक्षों में उड्डीयमान होती चली गई।
"हठात् आकाश का कोई सुनील तटान्त विस्फोटित हो कर, एक विशाल नीलमी तोरण में खुल गया। · · 'सामने दिखाई पड़ रही है शकेन्द्र की सुधर्मा-सभा। जीवन्त रत्नों की नानारंगी प्रभाओं से दीपित विराट ऐश्यर्यलोक। चौरासी हज़ार सामानिक देवता, तैतीस त्रायत्रिंश देवता, तीन प्रकार की मंडलाकार देव-सभाएँ, चार लोकपाल, असंख्य प्रकीर्णक देवता। चारों दिशाओं में दृढ परिकर बाँधे चौरासी हज़ार अंगरक्षक । विपुल देव-सैन्य से आवृत सात सेनापति देवेन्द्र । सेवक वर्गीय आभियोगिक देव-देवियों का गणसमूह । किल्विष्यादिक देवताओं का विशाल परिवार । इस सब देव-परिकर के केन्द्र में दक्षिण लोकार्द्ध के रक्षक सौधर्म इन्द्रेश्वर अपने उत्तुंग शंखाकार सिंहासन पर नागमणियों के विपुलाकृति छत्र तले आसीन हैं। किन्नरियाँ और अप्सराएँ नृत्य-संगीत से उनका मनोरंजन कर रही हैं।
हठात् शकेन्द्र सिंहासन त्याग कर उठ खड़े हुए। पादुकाएँ उतार आगे बढ़ आये। उत्तरासंग से भूमि-शोधन कर अपना दायाँ जानु पृथ्वी पर स्थापित किया तथा बायें जानु को किंचित् झुका कर शक्र-स्तवन से वे प्रभु की वन्दना करने लगे। फिर वहीं भमि पर जानुओं के बल बैट कर, रोमांचित और गलदश्रु हो कर अपनी देव-सभा को यों सम्बोधन करने लगे
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