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हुए भी, सारी ही इन्द्रियों के सुखों की एकाग्र और अपरम्पार परितृप्ति में मुझे पर्यवसित किये दे रहा है । स्पर्शेन्द्रिय से परे का यह स्पर्शन, अपने ही भीतर ऊर्मिल ऐसा गहन मार्दव और आलोड़न है कि ऐन्द्रिक भाषा में वह कथ्य नहीं ।
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दसों दिशाओं में क्रमशः एक-एक अहोरात्र अवस्थान और अतिक्रमण करते हुए, परायोगिनी सर्वतोभद्रा के सर्वालिंगन में काल को महाकाल में निर्वाण पाते देखा । ऊर्ध्व और अधो दिशाओं के पुद्गल - परमाणुओं में जब युगपत् आरोहण और अवरोहण का संयुक्त अभिसार हुआ, उस समय संसार और निर्वाण की भेदरेखा अनायास तिरोहित होती दीखी । रूप और रूपातीत में एक अद्भुत सामरस्य की अनुभूति से चेतना विश्रब्ध हो गई ।
ऐसा लगा कि सर्वतोभद्रा ने लोक के सर्वतोमुखी मंगल-कल्याण की मांत्रिक- विद्युत् से मेरे समस्त रुधिर - प्रवाह को ऊर्जायित कर दिया है । सो इस रत्नत्रयी प्रतिमायोग से अवरूढ़ होते ही, मैंने लोकालय का अत्यन्त ऊष्म आमंत्रण अनुभव किया ।
सानुयष्टिक ग्राम में प्रवेश करते ही आनन्द श्रावक के द्वार पर अपने को उपस्थित पाया । देखा, वहाँ उसकी दासी बहुला पात धो रही है । मुझे सम्मुख पा वह बहुत असमंजस में पड़ गई । वस्तु अवस्तु का भान ही उसे न रहा । भाव-विभोर हो कर उसने अपने लिये निकाला हुआ ठंडा अन्न अंजुलि में ले कर मुझे अर्पित किया । भिक्षुक ने पाणि- पात्र में उसे सहज झेल लिया ।
'दासी भिक्षुक की वह समरस मुद्रा देख कर, अपनी विवशता पर आक्रन्दन कर उठी :
."
'हाय नाथ, त्रिभुवनपति, मैं अभागिन- दासी
यह छूटा हुआ जूठा, ठण्डा अन्न ही तो मेरे पास है
'भिक्षुक तेरे भोजन का सहभागी है, कल्याणी ! '
'ना ना ना स्वामी, मैं दीना, मलिना, रंकिनी दासी । और
तुम
क्या दूं तुम्हें । अपने भाग का
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'सर्वतोभद्र पुरुष । दासों का दास, स्वामियों का स्वामी ।'
'हाय, "यह क्या ? ठंडे, जूठे तंदुल क्या हुए मेरे ? स्वामी के पाणि-पात्र में यह कैसा देवभोग ! '
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'एक ही द्रव्य । क्षण-क्षण नव-नूतन पर्याय । दिव्य भोजन भी वही, जूठन भी वही । दासी भी वही, देवी भी वही । .'
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