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दोपहरी के निर्जन सन्नाटे में छिले बदन, दीन मुख, हत प्राण गोशालक मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।
'स्वामी, आपका हृदय पत्थर का है कि फौलाद का ? मुझ निरपराध को दुष्टों ने मरणान्तक मार मारी, और आप चुपचाप खड़े, तमाशा देखते रहे ?'
!'
'मेरा क्या अपराध है, भन्ते ? आप तो जानते हैं, मैं चिर दिन का अस्खलित ब्रह्मचारी हूँ । आप ही का नग्न निग्रंथ शिष्य हूँ । पर यह कामदेव बड़ा नीच और निर्लज्ज है, प्रभु ! पिशाच की तरह वह मुझ पर चढ़ बैठा है, और अपने दारुण ज्वर से उसने मुझे हताहत कर दिया है। आप तो मेरी गुहार सुनते नहीं, सो मैं दीन दयालु वासुदेव की शरण चला गया । अपना उद्विग्न कामदण्ड मैंने उनके सामने नैवेद्य कर दिया । ताकि वे कामदेव के इस क्रूर वाहन को ही लील जायें, और मुझे सदा के लिये इस दुष्ट की उपाधि से मुक्त कर दें । अब आपही न्याय करें, भन्ते, इसमें मेरा क्या दोष था ?'
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'कापालिक !
...
मन्दिर की दीवारों ने प्रतिध्वनित किया : 'कापालिक ' • कापालिक कापालिक !'
'मैं कापालिक ? आपका परम प्रियपात्र शिष्य मैं और कापालिक ?'
'वह तू नहीं । वह तेरे मन की एक पर्याय । अवश्यम्भावी । तू लिंगकाम नहीं । तू है लिंगातीत महाकाम ।'
'तो फिर इस दुष्ट काम को कैसे जीतूं, भन्ते ?'
'क्रोध से कामजय करेगा रे ? कषाय के कषाय जय कैसे होगा ? सदा स्वयंकाम रह । जो स्वयम् ही अपना काम हो रहे, वह सहज ही पूर्णकाम होता है । अकाम नहीं, पूर्णकाम ही हुआ जा सकता है, वत्स ।'
'मैं मढ़ मन्द मति आपकी गूढ़ बातें समझ नहीं पाता, भन्ते ! '
'समझ नहीं, केवल सुन, देख, सह, तप । अनुभव आप ही प्रकाश है ।' 'प्रबुद्ध हुआ, भन्ते !'
पुरिमताल के शकटमुख में उद्यान चंक्रमण कर रहा हूँ । सामने दिखाई पड़ रहा है कचनार-वन । तलदेश कचनार के कासनी फूल - गुच्छों से छाया है । ध्यान आ रहा है, यहाँ एक दिन इस नगर के वागुर श्रेष्ठि ने अपनी वन्ध्या सेठानी के साथ कुसुम-क्रीड़ा की थी । क्रीड़ा में तल्लीन विचरते हुए, वे युगल एक विशाल जीर्ण मन्दिर की ओर जा निकले । कौतुक वश देवालय में प्रवेश कर
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