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· · · नहीं वैशाली , आज मैं तेरे द्वार पर नहीं आया, तेरे लोहकार के द्वार पर आया हूँ । जहाँ तेरे दुर्ग, तोरण-कपाट और कोषागारों की अर्गलाएँ ढाली और गढ़ी जाती हैं, उस लोहशाला में आया हूँ। तेरे लोहकार का घन मेरी प्रतीक्षा में है, क्योंकि उसकी प्रकाण्ड निहाई भग्न हो गई है। उसका लोह गल गया है, और किसी भी तरह ढलने में नहीं आ रहा है। वह चोट करे तो किस पर करे ? तेरी जीर्ण और क्षीण हो गई अर्गलाओं को वह फिर से गढ़े, तो कैसे गढ़े ?
वैशाली की सीमा-वर्ती महा लोहशाला के एक कोने में बड़ी भोर ही आकर वज्र-योगासन में ध्यानस्थ हो गया हूँ।. . .लोहकार चण्डवेग कई दिनों से रुग्ण था। हाल ही में वह नीरोग हुआ है। आज के शुभ मुहूर्त में, आरोग्य लाभ करने पर प्रथम बार उसने स्वजनों के साथ लोहशाला में प्रवेश किया । कोने में निगाह पड़ते ही वह चौंका, क्षुब्ध हो उठा :
'अरे इस मंगल-मुहूर्त में, कम्मशाला में प्रवेश करते ही, यह कौन नंग-धडंग दिखाई पड़ा है ! जान पड़ता है कोई दस्य, श्रमण का रूप धर कर चुपके से यहाँ घुस बैठा है। लाओ, इसी पर अपने घन की पहली चोट करूं और इसके रक्त से शुभारंभ का स्वस्तिक करूँ। • • ____ 'मेरी कई दिनों से भग्न पड़ी निहाई, जड़ने में नहीं आ रही । इसके मस्तक की बलि उस पर चढ़ाऊँ, तो शायद जुड़ जाये । ..'
और वह क्रोध से हुँकारता हुआ अपना घन लेने को दौड़ा। 'मैं तेरे घन की नयी निहाई होने आया हूँ, वैशाली के महालोहकार! . . .' अपने भीतर मुझे सुनाई पड़ा।
• · ·और भग्न निहाई पर मस्तक ढाल कर श्रमण निश्चिन्त सो गया । लोहकार के परिजन भयानक दुर्घट की आशंका से डर कर भाग खड़े हुए।
लोहकार ने घन उठाकर फिर गर्जना की :
'ले पाखण्डी, तैयार हो जा। तेरे बलि-रक्त से आज मैं अपनी निहाई को साबुत करूँगा !'
'तथास्तु · · · !'
और ज़ोर से घन को हवा में तीन बार घुमा कर वह श्रमण के मस्तक पर चोट करने को हुआ, कि घन उछल कर उसी के मस्तक पर आ टुटा । इससे पहले कि उस पर चोट हो, अन्तर-मुहूर्त मात्र में श्रमण के माथे ने लोहकार के मस्तक को छत्र की तरह छा लिया। • घन भन्ना कर निहाई पर जा गिरा । खंडित निहाई चूर-चूर हो कर पारे की तरह बिखर गई।
'ओह, महाश्रमण वर्द्धमान कुमार ! वैशाली के मेरुदण्ड · · · ! हाय, मेरी आँखों पर यह कैसा मायावी पर्दा पड़ गया था। क्षमा करें, भगवन । आर्यावर्त के
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