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स्वरूप है । वह अस्तित्व के वैषम्यों का चलता-फिरता दर्पण है । वह पूरे जगतनाटक का एक केन्द्रीय नट है । वह अज्ञानी संसार की सारी मूढ़ताओं का एक सचोट व्यंगकार और विदूषक है। अपना और सबका समान रूप से मज़ाक उड़ा कर, हास्य-विद्रूप करके, वह संसार की यथार्थ स्थिति को उजागर कर रहा है । वह अपनी बलि दे कर, औरों का पथ उजाल रहा है । उसे मैं नहीं अपनाऊँगा, तो कौन अपनायेगा ? मेरे सिवाय इस स्वार्थ-प्रमत्त जगत में उसकी तमोग्रस्त आत्मा को कौन प्यार करेगा ? उसकी भोली, मूढ़, विभोर आँखों में अनेक बार, उसकी मुमुक्ष आत्मा के उदग्रीव दीये को मैंने देखा है। . . .
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