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भाव से, वृक्ष से टूटी डाल की तरह, भलते रास्तों पर टक्करें खा रहा है। किसी विशाल सर्प की बाँबी में जैसे चूहा भूल से घुस जाये, वैसे ही वह उस अरण्य भूमि में घुस गया । वहाँ विकट पाँच सौ चोरों का अड्डा था । गृद्ध दृष्टि से एक चोर ने वृक्ष की डाली पर से गोशालक को आते देखा । उसने दूसरे चोरों से कहा :
'मित्रो, कोई द्रव्यहीन नग्न पुरुष आ रहा है ।'
साथी चोरों ने कहा :
'नग्न भले ही हो, हम इसे छोड़ेंगे नहीं । शायद किसी राज्य का चर हो. या चोर का चर हो । और मित्र, राज्य भी तो चोरों का अड्डा ही है । चोरी करने का अपना-अपना ढंग ही तो है । आओ मित्रो. राज्य में ही सुरंग लगा दें, तो चोरी की झंझट ही समाप्त हो जाये । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ।...'
और वे मारे चोर ठहाका मार कर हँसे ।
'आओ मामा, आओ मामा, स्वागत है । खीर-पूड़ी तैयार है। भोजन करो ।.
गोशालक प्रसन्न हो गया | श्रमण को छोड़ना तुरंत फलीभूत हो गया । तत्काल खीर-पूड़ी का आमन्त्रण मिल गया, वह भी इस घोर जंगल में, जहाँ न मानवी, न मानवी का जाया । खिली बाँछों से वह अपने हँसते यजमानों को हेरने लगा। चोरों ने उसे घेर लिया, और बारी-बारी से उसके कन्धों पर चढ़ कर, उसे साँढ़ की तरह हाँकने लगे । झापड़ मार-मार कर उसे दौड़ाने लगे । ... थोड़ी ही देर में उसका दम अखीर होने लगा । उसे अन्तिम साँस लेता छोड़ कर. वे जंगल के अपने अज्ञात डेरे में जा छुपे ।
गोशालक बिलख-बिलख कर रोने लगा : 'हाय, स्वामी से दूर होते ही श्वान की तरह इस दुःसह विपत्ति में पड़ गया हूँ । मैं कृतघ्नी यह भूल गया कि संकट आने पर मैं तो सदा उनके अंगों में दुवक जाता था, और मेरी ओर से भी वे ही सारी मार खाते थे । समर्थ हो कर भी वे अपनी रक्षा से उदासीन रहते थे. तो कोई गंभीर कारण होगा । चुप रह कर भी वे अपनी आँखों से मुझे कितना प्यार करते थे । ऐसे स्वामी अब कहाँ पाऊँगा ? हाय रे हाय, मैं जनम जनम का अभागा, अनाथ, अब उन नाथ को कहाँ खोजूंगा ! '
और वह मिमकता, हथेलियों की पीठ से आँसू पोछता. उस वनखण्ड का अतिक्रमण कर, स्वामी की खोज में उद्भ्रान्त भटकने लगा ।
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