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महावीर खड़ा हुआ था। : ‘राख में ढंकी आग-सी तुम्हारी सुप्त वेदना जाग उठी । ठीक ही हुआ। पूत-पावनकारी है यह पावक । इसे दबाओ नहीं । निरन्तर प्रज्ज्वलित रक्खो। इसी की राह एक दिन आऊँगा तुम्हारे पास । इसी भट्ठी में तुम्हें अपने हाथों नुतन वैशाली का भाग्य ढालना होगा । आज के बाद तुम्हारे द्वार पर कपाट बन्द नहीं होंगे। सुवर्ण-मुद्राओं की अर्गलाओं से वे जड़े नहीं रहेंगे। सब के लिये सब समय वे खुले रहेंगे। फिर सम्राट आये कि भिखारी आये। तुम समान रूप से सब की चाह पूरी करोगी । सब की हो कर रहोगी . ।'
'मैं, जनपद-कल्याणी ?' 'जगदम्बा ही जनपद-कल्याणी हो सकती है।'
.. - ‘नाथ, निगाह पड़ते ही तुम कहाँ चले गये ? दर्शन दे कर भी प्यासी ही छोड़ गये . . ?'
'मैं ही तुम्हारी प्यास हूँ, अंबे । मुझे सहना होगा।'
. . पैरों को बाँध कर पीछे खींचते बाह-बन्धों के पुण्डरीक विवश ढलक कर खिल पड़े। श्रमण निष्ठुर पदाघात के साथ, अभेद्य कान्तार में राह भेदने लगा।
· · · शालिशीर्ष के उद्यान में एक सघन शिरीप वृक्ष तले ध्यानस्थ हूँ । माघपूस की शिशिर रात्रि में हिमानी हवाएं बह रही हैं। वृक्ष की घटा में से कैसी बर्फ पिघल कर शरीर पर टपक रही है। हिमवाय के झोंके उनमें बाण चला रहे हैं । शरीर के पोर-पोर में बछियाँ बिंध रही हैं।
· · ·किसने ऐसी कृपा की है, कि मेरे रेशे-रेशे में जमे हुए अनादिकाल के कर्म-मल कट रहे हैं । ओ - तुम हो, बाण-व्यन्तरी कटपूतना । तापसी का रूप धर कर मुझे तारने आई हो । तन पर वल्कल, माथे पर जटा. और अपरूप सुन्दर मुखड़ा लेकर आई हो । मेरी खातिर कितना कष्ट किया तुमने ! इस शीत-पाले की रात में हिम-सरोवर में अपने को डुबो कर आई हो, ताकि अपने लावण्य के जल मे मुझे सारी रात नहलाती रहो । ।
- जानता हूँ, त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में तुम मेरी विजया नामा रानी थी। मैं सहस्रों रानियों के बीच मदमत्त लीला-विहार करता था। तुम्हारे निवेदन-कातर नारीत्व की मुझसे वार-बार अवज्ञा हुई । ईर्ष्या, टेपकुण्टिन वासना की तीव्रानुबन्धी कषायों को अपने अतल में दफनाये, तुम जन्मान्तर करती रही। एक साथ प्रीति और प्रतिशोध की आग में जलती हुई, अपने हर अगले जन्म में मुझे बावलीसी खोजती फिरी । बदला भनाने को, या मेरा प्यार पाने को ? सो तो तुम्हीं जानो।
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