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'कुछ नहीं : 'सब कुछ।' 'मौत भी?' 'केवल जीवन ।' 'मौत के जबड़े में • • • ?' 'हो. • वही तो जीवन है ।' 'मर कर · · ?' 'जीते जी।'
मैं बेरोक चुप-चाप बढ़ा जा रहा हूँ। उत्तर मेरी आगे जाती पीठ से लौट रहे हैं । श्रमण ताकता ही रह गया।
. . 'लाढ़, वजभूमि, शुभ्र भूमि में, क्रमशः विहार कर रहा हूँ। काले, जामुनी या तांबिया वर्ण के अर्ध-नग्न नर-नारी बन-मानुषों की तरह भयंकर और खंख्वार
आँखों वाले हैं। जंगली जानवरों की तरह मांदों में रहते हैं। या फिर चट्टानों में गफाएं तराश कर, या शाँखरों के झोपड़ों में । इनके बीच मानों भक्षण और यौनाचार के सिवाय और कोई सम्बन्ध नहीं। चाहे जब कोई बलवान किसी निर्बल को आहार बना सकता है । अन्न-वनस्पति सुलभ होने पर भी जिघांसा वश एक दूसरे को मार कर मानुष-मांस के भोजन और रक्तपान का उत्सव करते हैं । अकारण ही एक-दूसरे को त्रास देना इनका प्रिय मनोरंजन है। एक-दूसरे को फाड़ खाना ही इनके मन सबसे बड़ा पराक्रम है ।
जहाँ भी जाता हूँ, मेरे शरीर को वे बड़ी चकित, मुग्ध, लोलुप आँखों से घूरते हैं। फिररीछों जैसे बड़े-बड़े कुत्ते वे हम पर छोड़ देते हैं। उनकी तीखी भंकों से 'माथा तड़कता है। अचानक कहीं से आकर वे पिंडलियाँ नोच लेते हैं। जांघों और नितम्बों में अपने हड़के दाँत गड़ा देते हैं । खून के फंव्वारों के साथ मांख-खण्ड गिर पड़ते हैं। किलकारियाँ करते कई स्त्री-पुरुष और बच्चे उस मांस पर झपटते हैं । आर्य के मांस-भोजन की स्पर्धा में उनके बीच मारा-मारी भी हो जाती है। · ·उनकी लालसाकुलता को देख चलते-चलते अटक जाता है। मेरी आँखें उनसे अनुरोध करती हैं :
क्यों लड़ते हो, क्यों अकुलाते हो, आत्मन् ! यह शरीर तुम्हारे ही लिये है। कम नहीं पड़ेगा कभी इसका मांस । लो, खड़ा हूँ. - ‘जी चाहा मुझे समूचा लो ।'
वे चकराये, चुप ताकते रह जाते हैं । उनकी रक्ताक्त फाड़ खाती आँखों में कैसा भोलापन झांकता है। वे मुझसे पूछते हैं : 'ओ अजनवी तुम कौन हो? ऐसा आर्य पुरुष तो पहले हमने देखा नहीं !' . . ' मेरी नग्नता उन्हें बहुत प्रिय लगती है। उसके कारण वे मुझे अपने बहुत निकट अनुभव करते हैं। · · · कौतूहलवश मेरा शरीर छ कर देखते हैं। उँगलियों से मेरी चुम्मी ले कर किलकारी करते भाग जाते हैं।
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