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नर-भक्षियों के देश में
अनार्यों के लाटदेश की देहरी पर पैर रखते ही पीछे से किसी ने टोका :
'इस प्रदेश में न जाएँ, आर्य । यह नरभक्षियों की भूमि है। भूले-भटके कोई आर्य कभी इस देश में चला गया, तो वह लौट कर नहीं आया !'
'इसी से तो वहाँ जाना है। . . !' 'अनुरोध सुनें, भन्ते, आप उन लोगों को नहीं जानते ।' 'जानता हूँ। इसी से तो जाना अनिवार्य हो गया है !'
मुड़ कर नहीं देखा, और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ उस पथ-रेखाहीन जंगल में राह काटने लगा। · 'छाया की तरह अनुसरण करता गोशालक चिहुका :
'आह, कांटे हैं कि तीर हैं ! और ये नुकीले पत्थर' • पैरों में भाले गड़ रहे हैं, भन्ते. !'
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया । गति क्षिप्रतर होती जा रही है। अपने ही रक्त मे जो पथ-रेखा बनती जा रही है, वह अचूक है । गन्तव्य को वही ठीक-ठीक पहचानती है । ग्रीष्म की प्रखर दोपहरी में लू के झकोरे प्रखरतर होते जा रहे हैं । अडाबीड़ जंगल पार कर खुले मैदान में पहुंचते ही भूकते हुए कुत्तों के कई झुंडों ने अगवानी की। दोनों हाथों से उनका स्वागत करते हुए, निश्चिन्त पगों से उनके भूकते मंडलों के बीच सहज ही यात्रा हो रही है । यात्री के इस अपनापे से वे अनभ्यस्त थे। उनकी भंकें कौतूहली और मित्र होती आईं। मानों कि वे बोले : 'अच्छे पथिक, कहाँ से आये हो, कहाँ जाओगे? · · ·और यहां आने की भूल तुमने क्यों की है? · . .' उनके भंकने में कातरता आ गई है। मैंने उनके बड़े-बड़े डील-डौलों के झबरे बालों को सहला दिया। मेरी पिंडलियों से रभस करते वे चलने लगे । गोशालक भी उन्हें सहलाता हुआ, आश्वस्त भाव से अनुसरण करने लगा।
कड़े बालों का एक वस्त्र कमर पर पहने कोई काकभुपुंडी श्रमण दण्ड धारण किये सामने आये : ___ हे सुकुमार योगी, क्या मरने आये हो यहाँ ? लौट जाओ तुरन्त । आतताइयों के डेरे में क्या लेने आये हो ?'
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