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• और क्या देखता हूँ, कि वन्या के पूर की तरह चिंघाड़ता हुआ एक घोर हाथी दोनों पैर उठा कर मुझ पर टूट पड़ा । मेरी काया ने कोमल हरियाले क्रीड़ा - पर्वत की तरह लहक कर, गजराज के उस भारी भरकम पदाघात को झेल लिया । 'हाथी एक गहरी निःश्वास छोड़कर मेरे पैरों में अपनी सूंड़ ढाल कर लोटने लगा । मैंने मन ही मन उसे प्यार से सहला दिया ।
कि ठीक तभी भूमि और आकाश के मानदण्ड समान एक पिशाच सामने आ खड़ा हुआ । उसके सारे शरीर में शूल उगे हुए थे । निमिष मात्र में चीत्कार कर वह मुझ से लिपट गया । कस-कस कर वह मुझे अपने आलिंग में अधिक-अधिक जकड़ने लगा । मेरे रोम छिद्र सिकुड़े नहीं, एकदम ढीले हो कर खुल पड़े । उनकी ऊष्मा में पिशाच की देह के सारे शूल पिघल - पिघल कर बहने लगे । हाँफते हुए वह मेरी छाती में गुड़ी-मुड़ी हो कर शरण खोजने लगा ।
· · पराजय के आघात से और भी अधिक विक्षिप्त होकर यक्ष ने फिर भयंकर हुंकार ध्वनि की । और मैंने देखा कि उस अभेद्य अन्धकार में से नीली- हरी विष - ज्वालाएँ उगलता हुआ एक भुजंगम सर्प आविर्भूत हुआ । अपनी फुंफकारों से हरियाली लपटे फेंकते हुए उसने मेरी सारी काया को अपनी कुंडलियों में जकड़ लिया । मेरे पो-पोर में दुःसह विषदाह धधकने लगा । मैं जैसे आहुति की तरह उद्ग्रीव हो कर, उस हवन कुंड में कूद पड़ा । सर्प की उम्र डाढ़ें, मेरे अंग-अंग को डसने लगीं। उसके देशों के प्रति, माँ की दूधभरी छाती की तरह, मेरी रक्त धमनियाँ उमड़ने लगीं । नागदेवता पीते-पीते अघा गये । और अलसा कर, मेरे पदनख पर फन ढलका कर विश्रब्ध हो गये ।
हारे हुए यक्षराज का विक्षोभ पराकाष्ठा पर पहुँच गया। उनका सारा शरीर एक जलती हुई प्रलम्ब शलाका बन कर सारे मन्दिर में फेरी देने लगा । फिर वह शलाका कई जाज्वल्यमान बल्लम बन कर चारों ओर से सन्नाती हुई मेरे अंगों का छेदन करती-सी लगी । 'और हठात् अनुभव हुआ, कि मेरे मस्तक, नेत्र, नासिका, दाँत, पृष्ठ, मेरुदण्ड, मूत्राशय और नख आदि सारे ही मर्म स्थानों में एक साथ दुर्दम्य शूल की वेदना प्रगट हुई है । अपने स्नायुओं में, पीड़ा से छटपटाते अपने प्राणों के उस संत्रास को मैं नग्न और निर्निमेष नयनों से देखता ही रह गया । पूर्ण जागृत और सन्मुख भाव से उस वेदना को मैं सहता ही चला गया | अटूट और अविरोधी चेतना के साथ | अक्षुण्ण और अक्षुब्ध चित्त से यक्ष देवता के जन्मान्तरों के विक्षोभों को मैं अपने स्नायु-मंडल में धारण करता चला गया । प्रतिषेध हीन । निष्कम्प, दुर्दम्य • मैं ।
अन्तहीन
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