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अगम्य क्या हो सकता है ? बचपन से ही वर्द्धमान के लिये वजित तो कुछ नहीं रहा । विवर्जित जिसे होना है, उसे हर वर्जना का अतिक्रमण करना होगा । देश और काल पर आरोहण करने चला हूँ, तो क्षेत्र विशेष की मर्यादा में कैसे विचर सकता हूँ ? और फिर कनक-खल के आश्रम में, जो प्राणी अपनी ही भयंकरता से इतना परित्यक्त और अकेला हो गया है, उसकी पीड़ा को जाने बिना, मेरे लिये निस्तार नहीं । अन्यत्र गति नहीं । जिसके पास कोई नहीं जाना चाहता, उसके पास मेरे सिवाय कौन जायेगा । आता हूँ तेरे पास, आत्मन् । तेरे ही लिये तो इस राह आन। हुआ है।
और मैं निश्चयपूर्वक कनक-खल की ओर उँगली उठा कर, उसी राह चल पड़ा । सरल यदि कुटिल हुआ है, तो क्यों ? देखना चाहता हूँ, मैं कितना सरल हूँ !
मैं उस निषिद्ध अरण्य में प्रवेश कर चुका था, और ग्वाले मेरा पीछा करने का साहस न कर सके । वे हाय-हाय करते रह गये। ___ॐ नमो अरिहन्ताणं. . . !' : मेरी सांस अपनी नहीं रह गई है । झाँयझांय करती इस विकराल अटवी में केवल यही मंत्र-ध्वनि सुनाई पड़ रही है । कर्पूर, तमाल और तिनिश वृक्षों की सुरम्य वीथी से पार हो रहा हूँ । सघन सुगन्धि से व्याप्त है यह दुर्भेद्यता । मेरे पद संचार से इसके बरसों के उलझे शाखा-जाल मानों हट कर राह बना देते हैं । अतिमुक्तक, वासंतिक और कदली के कुंजों में से क्रमशः गुज़र रहा हूँ । इनके छोर के वासर कक्ष में कौन वधू मेरी प्रतीक्षा में है ?
__.. हठात् पाया कि एक भयंकर वीरान में आ निकला हूँ । हरियाली जाने कब पीछे छुट गई । दूर-दूर तक फैले वृक्षों के कंकाल अंतहीन हो गये हैं । हाड़-पिंजरों का एक बियाबान । भय से निपीड़ित, दबती उसाँसें और घायल सिसकियां सुनाई पड़ रही हैं । निर्जनता देह धारण कर, जैसे चेतना को आक्रांत कर रही है । हवा तक यहां से भयभीत हो कर भागी हुई है । श्वास-प्रश्वास अवरुद्ध होने लगे हैं । देह में रोंगटों की कटीली झाड़ियां उग आई हैं । लग रहा है, भयार्त होकर मेरे शरीर तक ने मेरा साथ छोड़ दिया है। नितान्त गति रह गया हूँ । एक निपट निरीह चेतना मात्र रह गया हूँ।
अनाथ, अनालम्ब, एकाकी चल रहा हूँ । स्वभाव से ही निराकुल हूँ। पर इस समय एक अन्तिम आकुलता से विगलित हूँ । किसी के प्रति अपना सर्वस्व दे कर शून्य हो जाना चाहता हूँ । 'ओ कोई अज्ञात आत्मन्, तुम्हारा आदिकाल का एक मित्र तुम्हारी खोज में इस मृत्यु के महारण्य
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