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चक्रवर्तियों का चक्रवर्ती
भूख लगी है ।
याद नहीं, कितने दिन बीत गये, आहार नहीं लिया है। आवश्यकता ही अनुभव महीं होती । आज सहसा ही क्षुधा की पुकार अनुभव कर रहा हूँ । स्वागत है । जान पड़ता है, भूख केवल अन्न के लिये नहीं । भूख केवल तन की पुकार नहीं, समूचे जीवन की एकाग्र पुकार है । समग्र समन्वित सृष्टि का अनुरोध उसके पीछे होता है । धर्म जब कर्म में प्रवाहित होता है, तो जीवन के सभी अंग अपनी परिपूर्ति चाहते हैं । देह का भी अपना एक धर्म है, वह पूरा होगा ही ।
दमन से नहीं, शमन से ही देह अनुसारिणी हो सकती है । दम नहीं, शम ही परिपूर्ण जीवन की कुंजी है । दबायी हुई देह, और दबाया हुआ मन, चाहे जब द्रोह कर उठ सकता है । तब वह आत्मा को उपशम श्रेणी से भी नरक के अतल में घसीट ले जा सकता है। शत्रु नहीं, मित्र मन और तन से ही सम्पूर्ण जीवन्मुक्ति सम्भव है । विरोध से नहीं, सम्वाद से ही सर्व को जीता जा सकता है। • शत्रु पुद् गल नहीं, उसके प्रति हमारा अज्ञान है, जो आत्मबोध के अभाव में हम पर हावी हो कर शुद्ध द्रव्य में भी हमें शत्रुत्व का अनुभव कराने लगता है । मुक्तिमार्ग विकासमान है । वह उत्तरोत्तर सुगम होता जायेगा, ऐसी प्रतीति होती है । मेरा तीथ अपूर्वं होगा । उस युग के मनुष्य देह का तिरस्कार करके नहीं, उसके स्वीकारपूर्वक मुक्ति चाहेंगे । उस नूतन मुक्ति की पथ-रेखा मेरे समक्ष दिन-दिन प्रत्यक्षतर हो रही है । तन, प्राण, इन्द्रिय, मन, चेतन की सम्वावदिता ही पूर्ण जीवन्मुक्ति उपलब्ध करा सकती है, ऐसा बोध मुझ में स्पष्टतर होता जा है।
भूख लगी है आज, तो जैसे कोई निर्दोष गुलाबी बालक मुझे बुलाने आया है । क्या उसे नकारूँगा ? सामने उत्तर वाचाला नगरी दीख रही है । वहाँ नागसेन गृहपति को अतिथि के लिए द्वारापेक्षण करते देख रहा हूँ । उसका इकलौता बेटा बारह बरस पूर्व देशान्तर गया था, सो फिर लौटा ही नहीं । कल साँझ एकाएक उसका वह खोया पुत्र घर लौट आया है। इसी से उसके घर आज समस्त ग्राम का न्योता है । परिवार के हर्ष का पार नहीं । पर नागसेन का मन उस भिक्षु अतिथि के लिए व्याकुल है, जिसके पैरों में देश-देशान्तरों की माटी लगी
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