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मैं उसके भोले चेहरे को एक निगाह देख, चुप हो रहता हूँ ।
एक और मास-क्षपण का पारणा आनन्द लोहार के यहाँ हुआ। फिर एक मास निराहार बीत गया, तो सुनन्द जुलाहे के कुटीर द्वारे भिक्षुक प्रतिलाभित हुआ । गोशालक आकर बोला :
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'भन्ते, लोग कहते हैं, सुनन्द जुलाहे ने प्रभु को सर्वकामगुण आहार से तृप्त किया । 'उत्कृष्ट रसवती तो समझ सकता हूँ, भन्ते, पर आहार में सर्वकामगुण कहाँ से आ गये ?'
मैं उसकी बाल्य - जिज्ञासा पर मुस्कुरा आया । वह बहुत गद्गद् हो गया । न समझ कर भी, मानों मरम गुन लिया हो उसने ।
गोशालक सोचता रहता, निःसन्देह यह स्वामी महा प्रतापी है । जान पड़ता ' है, परम ज्ञानी है । देखूं तो, कितना ज्ञानी है ? सो कार्तिक पूर्णिमा के सबेरे मेरे निकट आ कर उसने पूछा :
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'देवार्य, आज नालन्द के गृहस्थ वार्षिक उत्सव मना रहे हैं । सबके यहाँ भारी अन्न-मधुरान्न का पाक हो रहा है। तो मुझे आज भिक्षा में क्या मिलेगा, भन्ते ? '
मैं एक टक चुप उसे देखता रहा । उसे जाने कहाँ से उत्तर सुनाई पड़ा :
'रे भद्र, खट्टा हो गया कोद्रव, और कूर धान्य पायेगा तू । और दक्षिणा में एक खोटा रुपया !'
उत्तम भोजन की प्राप्ति के लिये लालायित गोशालक, सबेरे से साँझ तक द्वार-द्वार भटकता फिरा । पर उसे कहीं से कुछ मिला नहीं । तब सायंकाल होने पर एक सेवक राह में उस पर दया कर उसे अपने घर ले गया । उसके फैले हाथों में आ कर पड़े सचमुच ही खट्टे कोद्रव और कूरान्न । भूख की व्याकुलता वश वह उन्हें भी खा गया । ' • और दक्षिणा में एक चमकता रुपया भी पाया उसने । पण्य में परीक्षा कराई तो पता चला कि सिक्का खोटा है । हाय रे भाग्य ! सच ही मेरे गुरु ज्ञानी हैं। होनी टल नहीं सकती । नियति जैसी कोई चीज़ अवश्य है । आ कर मुझ से बोला :
'भन्ते, सर्वज्ञानी हैं आप । भावी की रेखा अटल होती है । नियतिवाद ही सत्य है ।'
'निश्चय, अज्ञानी नियतिबद्ध है । पर ज्ञानी स्वयम् अपना नियन्ता है । जो स्व-भाव में है, अपना भावी वह आप है ।'
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गोशालक चौंका । मुझे मौन देख अचंभित हो रहा । स्वामी तो चुप हैं, फिर उत्तर किसने दिया ? • असमंजस में खोया वह अपनी राह चला गया ।
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