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फाश कर दिया । ठीक किया न भन्ते ?' '
मैंने कुछ नहीं कहा । मेरी आँखें क्षुरधार देख उठीं। 'भन्ते, वे क्या निगंठी हैं ?'
'निश्चय, निग्रंथ वह, जो सवस्त्र और अवस्त्र से परे है । नग्न हो कर भी कोई निग्रंथ नहीं भी हो सकता है। और सवस्त्र हो कर भी कोई निग्रंथ हो सकता है।'
मेरे चेहरे पर उसने जैसे अग्नि के अक्षरों में लिखा, यह पढ़ लिया।
'भन्ते, वे आपकी निन्दा कर रहे थे। कह रहे थे, होगा कोई कुलिंगी, स्वेच्छाचारी, तेरा वह गुरु · · · ! पार्श्व के शिष्य ऐसे प्रमादी, कि अर्हत् महावीर को नहीं जानते !'
मैं चुप रहा। अपने ऊपर झरते शेफाली फूलों को हाथों में झेलता रहा ।
'भगवन्, मैंने उन अर्हत्-निन्दकों को शाप दिया कि मेरे गुरु के सत्य-तेज से तुम्हारा उपाश्रय जल जाय · · ·। पर अब तक तो जला नहीं, प्रभु ? क्या आपका तपतेज असत्य सिद्ध होगा लोक में ?'
'उपाश्रय नहीं जला, पर तू रात और दिन जल रहा है, सौम्य । क्यों आत्मदाह करता है , वत्स ? अर्हत् उपाश्रय में भी हैं, तेरे पास भी हैं। अपने को देख . . . देख · · ·देख, सौम्य ।'
गोशालक शान्त होकर अर्हत् के आसन-प्रान्त में ही शिशुवत् सो गया । मध्य रात्रि झाँय-झॉय कर रही है । कायोत्सर्ग में एकाएक मैं उन्मुख हुआ।
· · ·उधर देख रहा हूँ, मुनिचन्द्र सूरि को । उपाश्रय से दूर अटवी में वे जिनकल्प की महातपश्चर्या में लीन, आत्मजय की उच्चाति-उच्च श्रेणियों पर आरोहण कर रहे हैं । इस ग्राम में उन्हीं के सचेलक शिष्य भिक्षाटन करते हैं। समाधिस्थ मुनिचन्द्र के वस्त्र सर्प-कंचुक, वृक्ष-छाल, अथवा जीर्ण पत्रों की तरह आपोआप ही झर पड़े हैं । उपाश्रय का स्वामी कुपनय कुम्भार मदिरापान में उन्मत्त हो, मध्यरात्रि में, पड़ोस के जंगल में भटक रहा है । उसने वहाँ शिलीभूत श्रमण को धर्त चोर समझ कर, उनका गला घोंट दिया।श्रमण प्रतिक्रियाहीन, निवैर भाव से अपनी वेदना को सहते रहे । अकस्मात अवधिज्ञान से उनकी आत्मा ज्योतित हो उठी...। और उन्होंने सहर्ष प्राण त्याग दिये : __.. दूर पर उल्का की तरह प्रकाशमान देवश्रेणि आकाश में वाहित दीखी। गोशालक चकित रोमांचित हो कर बोल पड़ा ।
'भन्ते, आप के सत्य-तेज से उपाश्रय में आग लग गई । ज्वालाएं आकाश चूम रही हैं।'
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