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मक्ति-मार्ग : सबका अपना-अपना
कुमार सन्निवेश के चम्पक-रमणीय उद्यान में एक शिलातल पर उपविष्ट हूँ। शरद ऋतु के सुनील आकाश तले, शेफाली के झरते फूलों ने सौरभ से नहला दिया है। दोपहरी हो आई है । सुन्दर भूख, मेरी ऊँगली के इशारे पर चुपकी लड़कीसी, सामने बैठी मुझे टुकुर-टुकुर ताक रही है।
'भन्ते, मध्यान्ह हो गया । बहुत भूख लगी है। चलिये नगर में गोचरी पर चलें।'
मुझ से कोई उत्तर न पाकर क्षुधातुर गोशालक भिक्षाटन के लिये गाँव में चला गया। वह कहीं भी जाये, उसकी चर्या पर मेरी आँखें लगी रहती हैं । समूचेसंसार का नाटक, उसके व्यक्तित्व में एक बारगी देखता रहता हूँ । मानव अस्तित्व के वैषम्य की वह एक खुली किताब है । अवचेतना की सारी सम्भव ग्रंथियां, उसके वर्तनों में प्रतिपल नग्न और निग्रंथ होती रहती हैं।
· · · कुमार ग्राम के चौक में गोशालक ने देखा कि कई श्रमण वस्त्र, कमली, पात्रा, दण्ड धारण किये भिक्षाटन कर रहे हैं। उसकी जिज्ञासा वाचाल हो उठी :
'अरे तुम कौन हो, भिक्खुओ ?' 'हम भगवान् पार्श्वनाथ के निर्ग्रथ शिष्य हैं ।'
'ओरे मिथ्यावादियो, धिक्कार है तुम्हें । तुम कैसे निग्रंथ ? दुनिया भर का ग्रंथ-परिग्रह तो अपने ऊपर लादे घूम रहे हो । महाश्रमण पार्श्व तो दिगम्बर अवधूत विख्यात हैं । तुम उनके शिष्य कैसे ?'
'हम स्थविर कल्पी हैं । अपने संहनन के अनुसार विचरते हैं।'
'स्थविर तो स्थावर होते हैं, और कल्पी कल्पक होते हैं। पर तुम तो पूरे जंगम हो, जंगी । तुम तो ठोस भोजन की खोज में, उलंग घूम रहे हो । संहनन तो मैं करता हूँ, गतदिन अपनी हानि करता हूँ • तप ! समझे कुछ ?'
पापित्य श्रमणों को उसकी मूढ़ता और वाचलता पर किचित् हँसी आ गई · · ।
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