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...आरक्षकों ने हमें बाहर निकाल कर, मुश्के खोल खड़ा कर दिया । दो श्वेत वसना साध्वियाँ हमारी प्रदक्षिणा कर, चरणानत हुईं : ___ हम सोमा और जयन्ती, भगवन् । पार्श्व प्रभु की परिव्राजिकाएँ । उत्पल देवज्ञ की बहने हैं हम ।'
'धर्म लाभ करो, देवियो !'
ठीक मेरे ही अनुसरण में गोशालक ने भी उद्बोधन में दोनों हाथ उठा दिय । कोट्टपाल और आरक्षक उसके तले भूसात् हो रहे ।
'क्षमा करें, भगवन्, हम अज्ञानी हैं। 'ज्ञान ही तुम्हारा एक मात्र स्वरूप है । अपने को पहचानो, सौम्य !' ...हम अपनी राह पर आगे बढ़ गये ।
'आश्चर्य वत्स, तू भी आज अखण्ड मौन रहा ?
'श्री गुरु की कृपा से कुछ बोध पाया है। कुछ पात्र हुआ हूँ। फिर आप जहाँ हो भन्ते, वहाँ मेरा कोई अनिष्ट हो ही नहीं सकता।'
मैं कुछ नहीं बोला।
पृष्ठचंपा में वर्षायोंग समापित कर, कृतमंगल नगर की ओर आया हूँ । उसकी एक वसतिका में, स्त्री-सन्तान वाले परिग्रही स्थविर रहते हैं । वे पितरपूजक हैं, और लौकिक पारिवारिक सुख में ही मोक्ष का अन्वेषण करते हैं। उनके पाड़े के बीच एक बड़ा देवालय है। उसमें उनके पराम्परागत कुल-देवता की प्रतिमा प्रतिष्ठित है । उस मंदिर में कई खम्भों की सरणियाँ हैं । उसी के एक कोने में, कोण-स्तम्भ की तरह निष्कम्प, कायोत्सर्ग में लीन हो गया हूँ। __ बाहर माघ-पूस की तीखी शीत हवाएं चल रही हैं। मन्दिर में आरती का शवघंटा रव थम गया । उसके उपरान्त उस रात स्थविरों का कोई पर्वोत्सव आरम्भ हो गया । नाना ग्राम-वाद्यों की तुमुल समवेत ध्वनियों के बीच, सुरापान और नृत्य-गान करते हुए, वे स्थविर नर-नारी जागरण-भजन करने लगे।
पर पुरुष और परनारी का भाव इनके मनों में नहीं है । मनमाने युगल जोड़ कर, हाथों में सुरापान लिये, अंगांग जुड़ाये आत्मभान भूल कर वे नाच रहे हैं। उनकी काम चेष्टाएँ पराकाष्ठा पर पहुंच कर, नृत्य-संगीत के सुर-तालों में मूच्छित हो जाती हैं। चाहे जब वे एक-दूसरे से छूट कर, नये युगल जोड़ कर, फिर क्रीड़ालीन हो जाते हैं । इस तल्लीन मदन लीला में मदन-पराजय का एक विचित्र दृष्य देख
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