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'निभ्रान्त हो, वत्स । उपाश्रय नहीं जला । श्रमण मुनिचन्द्र सूरि की तपःपूत आत्मा देवलोक में गमन कर रही है !' ।
'तो अर्हत् महावीर का तपतेज मिथ्या सिद्ध हो गया, भन्ते ?' 'वह सत्य सिद्ध हो गया । यह विद्यल्लेखा उसकी साक्षी है . . .!' गोशालक ने अन्तरिक्ष में वाहित उस ज्योति-शिखा को प्रणाम किया।
गोशालक के चापल्य और कौतूहल को चैन नहीं। वह दौड़ा-दौड़ा गया और उपाश्रय टोहने लगा। पास जा कर देखा, सुगन्धित जलों की दिव्य वृष्टि में नहाया उपाश्रय सुनसान पड़ा है। एक परिन्दा भी वहां नहीं फड़का । भीतर जा कर उसने देखा, सूरि के शिष्यागण गहरो निद्रा में खर्राटे खोंच रहे थे । उसने कोहराम मचा दिया :
__ 'ओरे मुंडो, ओरे प्रमादी शिष्यो, तुम कैसे श्रमण हो? तुम्हारे गुरु स्वर्ग सिधार गये, और तुम पर जूं भी नहीं रेंगी ? दिन में गोचरी करना, और रात में अजगर की तरह सो रहना । क्या यही तुम्हारी श्रमणचर्या है, षण्डो· · · ?'
खलभला कर सारे श्रमण जागे, और अपने प्रमाद पर उन्हें घोर पश्चाताप होने लगा। वानरवंशी गोशालक अपनी सफलता पर हर्ष मनाता, मेरे पैरों में आ दुबका । अस्तित्व की एक मौन, विस्फोटक चीत्कार ।
चोराक ग्राम की एक सीमावर्ती पहाड़ी पर आकर पैर रुक गये। उसी स्थल पर अनायास ध्यानस्थ हो गया । मेरे समकक्ष ही गोशालक भी ध्यानलीन हो रहा । अब वह अनुसारिणी छाया की तरह ही मेरी हर चर्या का अनुकरण करने लगा है। उसका मन तो खाली है। उसमें कुछ ठहरता नहीं। सो सहज ही मेरा प्रतिबिम्ब हो
रहता है।
देखता हूँ, सीमान्तक प्रदेश होने से आजकल यहाँ परचक्र का भय व्याप्त है। कोट्टपाल अपने आरक्षकों को साथ लिये गश्त लगाते रहते हैं।
अचानक कुछ पदचापें, कुछ फुसफुसाहटें सुनाई पड़ी। 'अरे षण्डो, तुम कौन हो ?'
उन्हें हमसे कोई उत्तर नहीं मिला । बार-बार पूछने पर भी उत्तर नहीं मिला। उन्हें शंका हुई : निश्चय ही ये कोई परचक्र के गुप्तचर हैं। कोट्टपाल कड़क उठा :
'अरे बहरे हो क्या ? जान पड़ता है गूंगे भी हो ?' उत्तर कौन दे . . . ? 'ठहरो, अभी तुम्हारी बहर और गूंग दोनों निकाले देता हूँ। . .
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