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केवल आकाश, मेरा चेहरा
अपने मस्तक पर उदय होते सूर्य के साथ श्रावस्ती आया हूँ । सुदूर गंगा के तट पर खड़े हो कर, कोसलेन्द्र प्रसेनजित के आकाशचुंबी राजभवनों को देख रहा है। उनके शिखर और बुर्ज कांप रहे हैं। उनके तले एक सड़ा हुआ राजा, केशर-कस्तूरी से अपने गलितांगों को सँवार रहा है।
नहीं, श्रावस्ती में नहीं जाऊँगा। अभी मेरी यात्रा सतह पर नहीं, तहों में चल रही है। गंगा के पानियों में धंस कर, श्रावस्ती की नीवों को झकझोरूँगा। कोसलेन्द्र की प्रासाद-मालाओं के पाये डोलेंगे।
• ‘चन्द्रभद्रा शीलचन्दन, हताश न होओ, मैं आ गया हूँ। देख रहा हूँ, श्रावस्ती के अन्तःपुरों में , भयानक चक्रव्यूहों के बीच फँसी तुम छटपटा रही हो। पर तुम्हारे आसपास उज्ज्वल आत्माएँ भी हैं । जो तुम्हारी ही तरह, यहाँ के कुटिल अंधकार की कुंडलियों में जकड़ी हैं। मालाकार-पुत्री महारानी मल्लिका। शाक्यों की दासी-पुत्री महारानी रेणुका । प्रसेनजित के विलास-पर्यंक में वे शुलियों-सी खटक रही हैं। उनके बीच तुम खड़ी हो, अकेली।· · · मैं आश्वस्त हूँ। ये शूलियाँ एक दिन तुम्हारा सिंहासन बनेंगी। वह दिन दूर नहीं, जब पितृघाती दासी-पुत्र विडुढब की वरिता हो कर, तुम कोशल की पट्टमहिषी के आसन पर उन्नीत होओगी। तब कोशल के लोक-हृदय पर तुम्हारा राज्य स्थापित होगा। वही होगा मेरा साम्राज्य । जिनेश्वरों की शासन-देवी हो कर तुम पृथ्वी पर चलोगी। . .
· · · लुब्धकों की मर्त्य और पौदगलिक चम्पा मर गई। अच्छा ही हुआ। वह उसकी अनिवार्य नियति थी। लेकिन अर्हतों की अमरा चम्पानगरी का तुम्हारे भीतर फिर उत्थान होगा। तुम्हारे सौन्दर्य की स्वयं-प्रभा में उद्दीप्त हो कर, वह शाश्वती में सर्वकाल वर्द्धमान रहेगी । तथास्तु, शीलचन्दन · · ·!
'चलिये भन्ते, भिक्षाटन को चलें, असार संसार में सारभूत वस्तु एक भोजन ही तो है।'
मुझे निरुत्तर देख कर, गोशालक फिर बोला :
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