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'अरे पाखंडियो, मेरा उपहास करते हो ? तुम कैसे निग्रंथ, सच्चा निग्रंथ तो मैं हूँ। कोई गाँठ मेरे मन में नहीं, जैसा हूँ, तुम्हारे सामने हूँ । नंगा, भूखा, कामी, लोलुप, जो हूँ, उसे छुपाता नहीं। पर तुम निग्रंथ बने घूमते हो, और वस्त्र-पात्रों में अपनी वासनाओं को छुपाये विचरते हो ।'
श्रमण उसे उन्मादी समझ कर, चुपचाप अपनी राह चल पड़े।
'बस कलई खुल गई न, तो भाग निकले। अरे सुनो, महाश्रमण पार्श्व का निगंठ रूप देखना चाहोगे? तो चलो मेरे साथ, और मेरे गुरु को देखो । वे भीतर-बाहर एक-से दिगम्बर हैं, असंग हैं, अपेक्षा रहित हैं। मौन हैं । जितेन्द्रिय और मनोजित हैं । महीनों में एकाध बार किसी भव्यात्मा को कृतार्थ करने के लिये, उसका आहारदान ग्रहण करते हैं।'
_ 'जैसा तू, वैसे तेरे गुरु ! कोई गुरु विहीन, स्वच्छन्दी, मनमाना लिंग धारण करने वाले दीखते हैं तेरे गुरु ?'
'हाँ, गुरु उनका कोई नहीं । वे स्वयम् ही अपने गुरु हैं । अनुयायी जो होते हैं, वे पाखंडी हो ही जाते हैं। जैसे तुम । मेरे गुरु ने इसी लिये मुझे अपना शिष्य नहीं अंगीकारा । कहते हैं-अपने को देख, अपने को जान, तेरा गुरु तेरे भीतर बैठा है। तेरे सिवाय कोई नहीं । समझे कुछ, मूर्यो !'
श्रमणों ने सहज हँस कर उसकी उपेक्षा कर दी और चल दिये । अपमान से जल कर क्रुद्ध कार्पटिक की तरह गोशाले ने शाप दिया :
'मेरे गुरु का तप-तेज सत्य हो, तो जाओ दम्भियो, तुम्हारा उपाश्रय जल कर भस्म हो जाये ।
उसका यह वातुल रूप देख ग्रामवासियों ने उसे धक्के मार कर बाहर कर दिया । भिक्षा से वंचित, भूखा-प्यासा, रोता-कलपता वह द्रुत पगों से उद्यान की ओर दौड़ा आया । अपनी व्यथा मुझ तक पहुँचाने को वह बहुत व्यग्र था। पर मुझे वहाँ न पा कर, वह बहुत व्याकुल हो गया । क्रोध से उत्तेजित होकर चंक्रमण करता, उपाश्रय के जलने की प्रतीक्षा करने लगा । पर न तो मैं ही उसे मिला, न उपाश्रय ही जला • । अगले दिन जब मैं चम्पक-रमणीय उद्यान में लौटा, तो देखा कि निराहार, लुंजपुंज वह शिलातल पर माथा ढाले पड़ा था। सहसा ही आसन पर मुझे उपस्थित पा कर वह जैसे जी उठा।
'स्वामी, बार-बार मुझे छोड़ कर चले जाते हो। तुम्हारे दिल में कोई दया-माया भी नहीं ?' ___ मैं चुप, मातृक दृष्टि से उसे ताकता रह गया ।
'भन्ते, कल ग्राम में मैंने पार्श्वनाथ के कुछ पाखंडी शिष्यों को देखा । आचूड़ परिग्रह से लदे हैं, और अपने को निगंठ श्रमण कहते हैं । मैंने उनके पाखंडों का पर्दा
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