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'तुम ग्रामपति के पुत्र, मैं एक तुच्छ दासी !' 'आह, तुम्हारा रूप-यौवन ! दासी नहीं, रानी हो मेरी । · ·आओ !'
झिल्लियां तक चुप हो गईं। शून्य गहराता चला गया। एक मात्र उपस्थिति में, अन्य सब अनुपस्थित हो गया। - एक दृष्टा के भीतर द्रव्य का शुद्ध परिणमन चल रहा है। कुछ ध्रुव है : उसी में कुछ उदीयमान है, कुछ व्यतीतमान है। नाम, रूप, सम्बन्ध से अतीत, केवल पर्यायों का संक्रमण ।
हठात् द्वार-पक्ष में गोशालक का अट्टाहस सुनाई पड़ा। ग्रामपति का पुत्र स्कन्द क्रोध से गरज उठा : 'अरे यह कौन पिशाच है, जिसने हमें छला है !'
तड़ातड़ लात-घूसों की मार से गोशालक को गठरी होते देख रहा हूँ। . . फिर सन्नाटा छा गया। सहसा ही अपने पैरों में आ पड़े गोशालक का आत स्वर सुनाई पड़ा :
'भगवन्, ये नर पिशाच शून्यगृहों में आ कर दुराचार करते हैं, तो मैं इनके पापों को खली आँखों देखता हूँ। आपका शिष्य हूँ, और दृष्टा हूँ, सो सब-कुछ देखूगा ही। आप से तो कुछ कहने की सामर्थ्य इनमें नहीं । किन्तु मुझ निर्दोष को निर्बल जान कर, ये मुझ पर अत्याचार करते हैं। यह कहाँ का न्याय है ? • • •और आप इनका वर्जन भी नहीं करते और मेरा रक्षण भी नहीं करते। फिर मैं किसकी शरण लूं, भन्ते ?'
'किसी की नहीं।' 'तो फिर मुझे कौन बचाये ?' 'कोई नहीं।' 'तो फिर मैं क्या करूँ ?' 'अपने को देख । · · · तू ही अपना संरक्षक, तू ही अपनी शरण ।' 'समझा नहीं, भगवन् ।' 'वाचाल तीतर ! • • “मौन हो जा, वत्स ।'
अनबूझ, निराश गोशालक रात भर बाहर की पतझारों में स्वयम् अपने ही द्वारा आखेटित व्याध-सा, अपने हत्यारे की खोज में विक्षिप्त भटकता रहा ।
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