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'आरक्षको, बाँधो इनकी मुश्कें, और इस अन्धे कुएँ में डाल कर इनकी मरम्मत करो !'
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आश्चर्य कि गोशालक भी मेरे साथ अकम्प और मौन ही रहा । आरक्षकों ने हम दोनों को आमने-सामने जुड़ा कर रस्सियों से बाँधा और उछाल कर कुएँ में डाल दिया ।
· फिर जैसे पानी भरने को घड़ा जल में पछाड़ा जाता है, उसी प्रकार वे हम दोनों को उस अन्धे कुएँ में पछाड़ने लगे ।
'बोलो दुष्टो, बोलो, अब तो अपना भेद खोलो ! '
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फिर भी कोई उत्तर नहीं मिला । गोशालक मारे भय के मूक, मेरे वक्ष में गठरी हुआ जा रहा है। वे और भी प्रबलता से हमें पूरे कुएँ में घुमा घुमा कर पछाड़ने लगे । कुएँ की दीवारों के तीखे पत्थरों से टकरा कर मेरी वज्रवृषभ हड्डियाँ तड़कती सी अनुभव हुईं। उनके पोलानों के अंधकार विदीर्ण होने लगे । उनमें से अन्त तिमिरान्ध गुफाओं की साँकलें टूटने लगीं। उनमें जमे जन्म-जन्मों के जाले कटने लगे । उन जालों के टूटते ही एक कराल मकड़ी निःसहाय हो कर छिन्न-भिन्न होती दीखी। पुंजीभूत हिंस्रता के भयावह जंतु, त्रस्त रक्ताणुओं के अण्डों में से निकल कर कुएँ की अन्धता में रेंगने लगे । रस्सियों के झकझोरते आघात, वेधक पत्थरों की टक्करें, जितनी ही अधिक घातक होती गईं, तन-मन में एक रेशमीन राहत और शान्ति का अनुभव होने लगा ।
तभी गोशालक की ग्रंथीभूत चुप्पी का मौन आक्रन्दन मन ही मन सुना :
'अरे प्रमै, मेरा अंग-अंग, अणु-अणु तुम्हारे अंगांगों से बिंधा है । तुम्हारे गाढ़ आलिंगन में डूबा हूँ, तब भी तुम मेरी रक्षा नहीं करते ? देखो न, मेरा पोर-पोर छिल गया है। हड्डियाँ टूट गईं हैं । लहूलुहान हो गया हूँ। फिर भी तुम्हें मेरी कोई परवाह नहीं
·?'
क्षण भर वह चुप रहा, फिर रुँआसा हो कर बोला :
'हाय, पर तुम तो अपनी भी रक्षा नहीं करते । खुद मार खा रहे हो, मुझे भी मरवा रहे हो । कैसे स्वामी हो तुम ? ऐसे असमर्थ ?'
एकाएक रस्सियाँ थम गई पछाड़ रुक गई। कुएँ के धारे पर सहसा ही किसी नारी का कण्ठ-स्वर सुनायी पड़ा :
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'कोट्टपाल, जो स्वरूप तुमने बताया है, वह तो वैशाली के देवर्षि राजपुत्र का ही है । क्या तुम नहीं जानते, वे चरम तीर्थंकर महावीर हैं । अभी छद्मस्थ अवस्था में हैं, सो मौन ही रहते हैं । दारुण तप से, दुर्दान्त कर्मचत्रों का भेदन करते विचर रहे हैं ।'
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