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'सुनें भन्ते, इस अधूरेपन से मैं बहुत ऊब गया हूँ । पूर्ण हुए बिना, मुझे पल भर चैन नहीं । और भन्ते, संसार में स्वार्थ, भंगुरता, मृत्यु देख कर बहुत-बहुत व्यथा होती है । क्या इनसे निस्तार का कोई अचूक उपाय नहीं ? • इस संत्रास में अब जिया नहीं जाता, भन्ते । क्या पूर्णता और मुक्ति जैसी कोई चीज़ सम्भव है, भन्ते ?'
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मेरी आँखें पूरी विस्फारित हो कर उसकी आर्त करुण मुख - मुद्रा पर छा गयीं । वह उनमें खोया, कुछ आश्वस्तता अनुभव करने लगा ।
भन्ते, औद्धत्य क्षमा करें। ये जो अजित केश-कंबली आदि कई श्रमण मोक्षमार्ग का प्रवचन करते घूम रहे हैं न, ये सब दुष्ट और पाखण्डी हैं । इनके दिल में दया नहीं। हाथी के दाँत दिखाने के और, खाने के और । बारीक तत्व चर्चा और धर्मोपदेश करते हैं। पर इनका प्रवचन अलग, जीवन अलग । जीवन में साधारण संसारी से भी ये गये बीते हैं, भ्रष्टाचारी हैं ।' 'मुक्ति मार्ग ये क्या जानें । मैं तो डरता नहीं किसी से । अक्खड़ हूँ न । इनके मुँह पर इनकी बखिये उधेड़ देता हूँ । सो मुझे दुत्कार देते हैं । अपने शिष्यों से पिटवा कर मुझे भगा देते हैं ।'
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मुझे निरुत्तर देख कर, गोशालक का छोटा-सा बालक मन क्षुब्ध हो आया । वह झल्ला कर अपने कोने में जा बैठा । सोचने लगा : 'मैंने तो इसे महानुभाव समझा था, पर यह श्रमण भी निरा पत्थर जान पड़ता है । उत्तर तक नहीं देता । बस हूँ हूँ करता रहता है। निर्मम, निर्दय । पर देखने में कितना भव्य, सुन्दर और वीतराग है । लगता तो दया की मूर्ति है। फिर मेरे प्रति ऐसा क्रूर क्यों है ? कुछ समझ नहीं आता । जान पड़ता है, जगत में सत्य है ही नहीं । सब झूठ और पाखण्ड ही है । सब निःसार, निरर्थक, माया । या फिर मैं ही बहुत दुर्गुणी, अपात्र, अभागा हूँ । कोई मुझे प्यार नहीं करता 'कोई मुझे नहीं चाहता । क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? क्या आत्महत्या कर लूँ ? ' और वह चुपचाप रोतासुबकता दीखा । औंधे हाथों से अपने आँसू पोंछता दीखा । मतिभ्रमित और किंकर्तव्य विमूढ़-सा हो कर अपने झोले में भरी चित्र - सामग्री और निरर्थक वस्तुओं को उलटनेपलटने लगा ।
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उसके मन की सारी गतिविधियों को हथेली की रेखाओं-सा स्पष्ट देख रहा हूँ । दीन-दरिद्र है यह वृत्ति से क्षुद्र है । क्रोधी, मानी, लोभी, द्वेषी भी है। हर समय प्रतिक्रियाओं से जलता - कुढ़ता रहता है । मैला -कुचैला है। जड़ और अकर्मण्य भी है । पर इसके कषाय पानी की लकीर से क्षणिक हैं । बालक की तरह, क्षणिकं
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