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मेरे जान-सम्पुट पर माथे ढाले हुए हैं। • एक सफेद कपोत और कपोती कहीं से आकर मेरे कंधों पर आँख-मिचौनी खेल रहे हैं। ..
देख रहा हूँ...
सुरभिपुर का सामुद्रिक शास्त्री पुष्पदन्त गंगा के तट पर से गुजर रहा है। वह यहाँ क्या खोज रहा है, सो उसे भी ठीक-ठीक पता नहीं है । इतनी ही संचेतना उसमें है कि उसे अपनी विद्या आज आश्वस्त नहीं कर पा रही है, और वह जाने किस अलक्ष्य वस्तु को टोहता, निष्कारण यहाँ भटक रहा है।
सहसा उस उज्ज्वल, अति सूक्ष्म, स्निग्ध बालुका प्रान्तर में उसे किसी के पद-चिह्नों की पंक्ति अंकित दिखाई पड़ी। ओह, ये चरण-छापें तो पद्म, चक्र, अंकुश, कलश, प्रासाद आदि चिह्नों से लांछित हैं . . ।
__ . . 'शास्त्र में जिनके विषय में केवल पढ़ा था, उन्हें आज प्रत्यक्ष देख लिया। निश्चय ही कोई षट् खण्ड पृथ्वी का अधीश्वर चक्रवर्ती इस मार्ग से गया है। मन ही मन उसने सोचा : क्यों न इस पद-पंक्ति का अनुसरण करूँ । कहीं न कहीं वह देवानुप्रिय अवश्य मिल जायेगा । उसकी सेवा करूँगा, तो मेरी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जायेंगी। और वह उन चरण-चिह्नों की राह चल पड़ा।
.. 'थूणाग सन्निवेश के चैत्य-उपवन में एक अशोक वृक्षतले ध्यानारूढ़ बैठा हूँ । सहसा ही पुष्पदन्त सामने खड़ा दिखाई पड़ा । विस्मय से वह दिङ्गमूढ़ हो गया है । सोच रहा है : 'निश्चय ही, यही वह पुरुषोत्तम है। · ·इसका वक्षस्थल श्रीवत्स चिह्न से लांछित है। इसका नाभि-मण्डल दक्षिणावर्त के कारण गंभीर है। इसके अंग-अंग सूर्यमणि माणिक्य की कोमल रक्ताभा से दमक रहे हैं । महर्दिक चिह्न केवल इसके चरण-तलों में ही नहीं हैं ; इसके शरीर का प्रत्येक अवयव अपने विशिष्ट लांछनों से दीपित है । पर विचित्र है यह व्यक्ति । ऐसे प्रशस्त लक्षणों से मंडित है, फिर भी निपट सर्वहारा और अकिंचन है। इसके तन पर तो एक जीर्ण वस्त्र का लत्ता भी नहीं । एक काष्ठ का कमंडलु और मयूर-पिच्छिका, यही इसकी एक मात्र सम्पदा है। किसी पांशुकुलिक से भी यह गया-बीता है। लूके-सूखे भिक्षान्न पर निर्वाह करता जान पड़ता है । द्वार-द्वार का भिक्षुक । दीन-हीन, कंगाल, याचक ! • • •
... तो क्या समस्त भरत-क्षेत्र की राज्य-लक्ष्मी के सूचक, सामुद्रिक-शास्त्र के वचन मिथ्या हो गये ? दीर्घकाल तक कष्ट उठा कर, देश-देश भटक कर, मैंने इस विद्या का गहरा मंथन किया है। पूर्वापर दोष से रहित, अव्यभिचारी माना जाता है यह सामुद्रिक विज्ञान । हाय, वह भी आज झूठा सिद्ध हो गया । मेरे जीने का आधार ही समाप्त हो गया । क्यों न उसी गंगा में जा कर डूब मरूँ, जिसके बालुका तट ने मुझे यों प्रवंचित किया है । हाय रे हाय, भाग्य की विडंबना । मेरे सारे शास्त्र
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