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तभी उस जलिमा के सघन अन्धकार में मे दो सुन्दर युवा नागकुमार उदय हो कर, मेरी ओर आते दिखाई पड़े। उनके चेहरों पर जल का परम शांत मित्रावरुण रूप झलक रहा था ।
· · · पहचान रहा हूँ तुम्हें, सौम्य देवांशियो ! शंबल और कम्बल । एकदा पूर्वे तुम सम्यक्त्व वत्सल जिनदास श्रावक और उसकी सहमिणी साधुदासी के प्रिय पालित वृपभ थे । व्रती श्रावक-दम्पति अपना ही प्रासुक मधुर भोजन तुम्हें भी देते थे। उनकी धर्मवाणी में तन्मय हो कर तुम प्रबोधित होते थे। उनके उपासी होने पर तुम भी भोजन त्याग देते थे । एकदा उनका कोई निकट मित्र, उनकी अनुमति बिना, भंडीवरण के यात्रा-मेले में होने वाली रथों की दौड़-प्रतियोगिता में तुम्हें जोत गया। चाबुक मार-मार कर उसने तुम्हारी सुकुमार धर्म-लालित त्वचा को लहूलुहान कर दिया। प्रतियोगिता में विजयी हो कर वह प्रमत्त हो गया। सो बिना तुम्हारे घावों की पर्वाह किये फिर चुपचाप आकर तुम्हें ठान में बाँध गया। श्रावक-दम्पति ने तुम्हें भोजन देने और तुम्हारी चिकित्सा करने को बहुत निहोरे किये। पर तुमने मुँह फेर लिया । अन्न-जल त्याग कर सल्लेखना के व्रती हो गये । श्रावक तुम्हें अविराम णमोकार मंत्र सुनाता रहा । और तुम उन्मग्न आँसू भरी आँखों से अपने उन श्रावक माता-पिता को निहारते देहान्त को प्राप्त हो गय । · · · जललोक की इस उत्तम देवगति में जन्म ले कर तुम मुझसे क्या चाहते हो, वत्सो ?'
'प्रभु की सेवा से कृतार्थ होना चाहते हैं !'
कहते ही वे दोनों ही सुकुमार कमलाकृति नागकुमार मुझ से गुंथ रहे सुदंष्ट्र के विकराल जबड़े में कूद गये । सुदंष्ट्र की साँसे घुटने लगीं। और कंबल-शंबल उसकी प्रचण्ड देह के पोर-पोर में घुस कर उसे अंतरिक्ष में चक्राकार उछालने लगे । और सुदंष्ट्र सौ-सौ गुनी अधिक शक्ति से प्रमत्त और विघातक हो कर उन फूल-से बालकों को कुचलने लगा । - सुर और असुर शक्ति के संघर्ष को मैंने उसकी तात्विक नग्नता में विस्फोटित देखा । मैंने अन्धकार की आदि पुरातन गुफाओं का भंजन करते प्रकाश के तीरों को देखा। ___शांतम् पापं · · · शांतम् पापं · · ·आत्मन्, शम · · ·शम · · ·शम। सुदंष्ट्र मैं तुम्हारा हूँ ।' • कंबल-शंबल मैं तुम्हारा हूँ । सोऽहम्, सोऽम्, सोऽहम् . . .''
और मेरी नासाग्र पर स्थिर दृष्टि में झलका : मेरी छाती पर दो सुन्दर कमलों के बीच सुदंष्ट्र शिशु के समान निश्चित निर्विकार, शान्त भाव से सो गया है।
कायोत्सर्ग के शिखर से अवरूढ हो कर जब मैंने आँखें खोलीं. तो नाव पर पार के घाट पर आ लगी थी । तट की बालका के श्वेताभ प्रसार में पद्मासन से आमीन था । और सारे यात्री बाण और सुरक्षा की गहरी निःश्वास छोड़ते हुए,
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