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उनके तन को घी-दूध आदि से अभिषिक्त करतीं। और गीतगान करती हुई लौट जातीं।
घी-दूध के निरन्तर अभिषेक से सर्प के तन पर चीटियों के झुंड छा गये । वे बहुत निश्चिन्त हो कर उसकी त्वचा में चटके भरती हुई, उसके रक्त का आहार करने लगीं। उसकी वेदना का पार नहीं था । पर चीटियों के हर दंश के साथ उसे अपने पुरातन वैरों का तीव्र स्मरण होता । सो वह चुपचाप पश्चात्ताप करता हुआ, चीटियों के दंशों को अत्यन्त धीर भाव से सहने लगा। उसे लगा कि वह अपने पूर्व वैर-विद्वेषों के ऋणानुबन्ध चुका रहा है। चुका देना होगा, जनम-जनम का सारा दीना-पावना ।
उसकी चेतना में निरन्तर प्रतिक्रमण चल रहा है । वह हर नये दंश के साथ, मानो अधिकाधिकं अपने स्वरूप में अवस्थित होता जा रहा है। उसके भीतर जागते प्रशम भाव की शीतलता को स्वयं अनुभव कर रहा हूँ। समत्व के उदय से उसकी आत्मा में अमृत का आप्लावन हो रहा है । . .
'कौशिक · · णमो अरिहन्ताणं · · · ! अप्पो भव । - अप्पो भव कौशिक !' एक गहरा निश्चिन्त निःश्वास । . . .
उसकी साँस छूट कर कपूर की तरह सारी वनभूमि में व्याप गई । सारे पेड़ जैसे चन्दन के हो गये।
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