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रहा । तुम मूच्छौंध होकर पागल की तरह प्रलाप करते निर्लक्ष्य, दिशाहारा दौड़ते ही चले गये। फिर अट्टहास कर तुमने अपनी कुल्हाड़ी आसमान के शून्य को फार देने के लिए उछाल दी और तभी चक्कर खा कर, तुम यम के मुख जैसे एक अन्ध गह्वर में गिर पड़े । अगले ही क्षण तुम्हारी उछाली कुल्हाड़ी भन्नाती हुई तुम्हारे ही ऊपर आ कर पड़ी। तुम्हारा मस्तक फट कर दो फाँक हो गया। तुम्हारी उस मरण वेदना का साक्षी हूँ मैं, चण्डकौशिक · · · !
तुम्हारी मोहरात्रि पराकाष्ठा पर पहुँची । तीव्रानुबंधी क्रोध के पूंजीभूत विष ने शरीर धारण किया । दृष्टिविष सर्प के रूप में तुम फिर इस पृथ्वी पर अवतरित हुए। इसी वनांगन की वनस्पतियों में तुम जन्मे। तुम्हारा प्राण-प्यारा उद्यान भी तुम्हें धोखा दे गया था। उस पर पूर्ण अधिकार रखने के सारे प्रयत्नों के बावजूद वह तुम्हारा न रह सका। उस पर तुम्हारे बैर का पार न रहा। उसके वंशज समस्त वनस्पति-राज्य, पशु-राज्य और अन्ततः प्राणिमात्र से उस बैर का प्रतिशोध लेने की वासना से तुम पागल हो गये। और तुम्हारा वह पुजीभूत बैर अन्ततः अपने ही मनज भाइयों पर केन्द्रित हुआ। श्वेताम्बी के राजपुत्रों का वंशज मनुष्य !
सो इस उजाड़ आश्रम के नैर्जन्य को तुमने अपना आवास बनाया। भूले-भटके जो पंथी इधर आ निकलता है, तुम्हारे दृष्टिपात मात्र से वह लाश होकर धराशायी होता है। सड़ती हुई लाशों से चिर दुर्गन्धित रहता है यह वनखण्ड। जाने कितने ही पशु-पक्षी, जीव-जन्तु तुम्हारे दृष्टि निक्षेप से यहाँ निरन्तर मरण पाते रहते हैं। निविड़ विष का कृष्ण-नील कोहरा यहाँ छाया हुआ है। झिल्लियों की झंकार तक से वंचित हो गया है. यह विजन कान्तार । तुम्हारे अति प्रिय सारे पैड़-पौधे तुम्हारे ही विष की फूत्कारों से जल-जल कर भस्म हो गये हैं। वायु तक का संचार यहाँ मानो शक्य नहीं। हवा, पानी, वनस्पति, माटी तक यहाँ की त्रस्त, दाहग्रस्त और निर्जीव हो गई है। प्राणहीनता के इस वीराने में तुम केवल अपना आत्मदाह ले कर जी रहे हो, चण्डकौशिक ! तुम्हारी यह एकलचारी विकलता, तुम्हारा यह आत्म-संत्रास मुझ से सहा नहीं जाता। आओ मित्र, मैं तुमसे मिलने आया हूँ। हो मके तो तुम्हारे इस विष को निःशेष पी जाने आया हूँ। अपने को खाली करो मुझ में । तुम्हारे कषाय का पात्र बनने को उद्यत है वद्धमान · · · !
' और निःशब्द, विचार-शून्य हो कर मैं चरम कायोत्सर्ग में लवलीन हो गया । मेरी चेतना के अन्तर-चक्षु में झलका : अपने पूर्व भवान्तरों के जाति-स्मरण से सर्पराज चण्डकौशिक वेदना से विक्षिप्त हो गया है। उसकी प्रतिशोध-ज्वाला आकाश चूमने लगी है। उसका जन्मान्तरों का आहत अहंकार सहस्र-जिह्व होकर फूत्कारने लगा है।
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